फलित ज्योतिष में मुन्थाका महत्त्व (वर्षकुण्डली विवेचन)

जन्मकुण्डली में जिस प्रकार पूरे जीवन की घटनाओं का फल देखा जाता है। उसी प्रकार वर्षकुण्डली में एक वर्ष की घटनाओं का विस्तृत विश्लेषण किया जाता है। पूर्वीय ज्योतिष में फल कथन करने की कई प्रकार की पद्धतियां हैं जिनमें एक पद्धति वर्षकुण्डली से एक वर्ष का फल कथन करने की है। इस पद्धति को ताजिक भी कहते हैं। सभी पद्धतियों का लक्ष्य फल कथन करना ही है। जहां जन्मकुण्डली जातक के जीवन भर की घटनाओं को फलित करती है वहीं वर्षकुण्डली उसके एक वर्ष में होने वाली घटनाओं को सूक्ष्मता से बताती है। वर्षकुण्डली का आधार तो जन्मकुण्डली पर ही निर्भर करता है जातक के जन्मकुण्डली में सूर्य जितने भोग-अंशों पर रहता है जब वहवापस उतने ही भोगांशों पर आता है तो वह काल वर्षकुण्डली का प्रवेश काल होता है। उसी काल के आधार पर जातक की वर्षकुण्डली बनाई जाती है ठीक वैसे ही जैसे जन्मकुण्डली का निर्माण किया जाता है। वर्षकुण्डली निर्माण में ध्रुवाङ्क का विशेष महत्व है। बिना ध्रुवाङ्क के वर्षकुण्डली बन ही नहीं सकती, ध्रुवाङ्क एक स्थिर मान है।

सूर्य राशि चक्र में 365 दिन, 6 घंटे, 9 मिनट, 9.72 सेकंड में एक चक्र पूरा करता है या इसे ऐसा भी कह सकते हैं, कि 52 सप्ताह, 1 दिन, 6 घंटे, 9 मिनट और 9.72 सेकेंड में सूर्यराशि चक्र पूरा करता है। 52 सप्ताह के ऊपर जितना समय उसे अपना चक्र पूरा करने में लगता है वह ध्रुवाङ्क है। जिस वर्ष की वर्षकुण्डली बनानी हो उतने से ध्रुवाङ्क को गुणा करके जन्म कालीन वार और समय में जोड़ देने से वर्ष प्रवेश काल, दिन, तारीख आदि मिलते हैं। इसी आधार पर वर्षकुण्डली का निर्माण किया जाता है। वर्षकुण्डली वर्ष काल राशि चक्र में ग्रहों की स्थिर स्थिति है। वर्षकुण्डली के निर्माण में सबसे पहले वर्ष प्रवेश की तारीख और समय की गणना करते हैं। ध्रुवाङ्क की सहायता से वर्ष प्रवेश का काल निकाल कर वर्षकुण्डली उसी स्थान के अक्षांश-रेखांश पर बनाई जाती है जहां पर जातक का जन्म हुआ होता है। इसके उपरांत ग्रहों के भोगांश निकाले जाते हैं, सभी ग्रहों के बल, पंचवर्गीय बल, मुन्था दशा आदि की गणना की जाती है। इस तरह उक्त सभी गणनाएं अनिवार्य हैं। क्योंकि इन्हीं के माध्यम से वर्ष फल सुनिश्चित किया जाता है।

मुन्था वर्षकुण्डली का एक विशेष महत्वपूर्ण अङ्ग है। वर्ष फल के लिए मुन्था की विशेष आवश्यकता होती है। मुन्था की स्थिति से वर्ष भर में होने वाली घटनाओं को जाना जाता है। वर्ष कुण्डली का सम्बन्ध जन्मकुण्डली से होता है। मुन्था जन्मकुण्डली में जन्म के समय लग्न अर्थात प्रथम भाव में माना जाता है। जो हर वर्ष एक राशि आगे बढ़ना अर्थात प्रथम वर्ष मुन्था प्रथम भाव दूसरे वर्ष जन्मकुण्डली के दूसरे भाव, तीसरे वर्ष तृतीय भाव और इसी क्रमशः बारह वर्षों में मुन्था सभी राशियों में भ्रमण करता है। और दूसरी बार लग्न में 13 वें वर्ष प्रवेश करता है। इस तरह जातक के 13वें, 25 वें, 49 वें वर्ष मुन्था लग्न में अपना सभी राशियों में भ्रमण पूरा कर पुनः पहुंचता है। जिस वर्ष मुन्था जिस राशि में जन्मकुण्डली में भ्रमण करता है उस वर्ष वर्षकुण्डली में भी वह उसी राशि में रहता है। मुन्था वर्षकुण्डली में अपनी भाव स्थिति के अनुसार फल देता है।

विंशोतरी, मुद्दा, योगिनी, पत्यायनी, हद्दा और बलराम दशाएं ही वर्ष फल के लिए शास्त्रों में बताई गई हैं। वर्ष फल कथन में इन में से एक, दो या कभी कभी तीन दशाओं की सहायता ली जाती है। फल कथन में किस दशा को अधिक महत्व देना है, यह ग्रहों के बल पर निर्भर करता है। यदि वर्ष कुण्डली में चन्द्र बली है तो निशान्तर मुद्दा, योगिनी और बलराम दशाओं पर विचार करें। यदि किसी ग्रह के कम अंश हों लेकिन वह बली हो, तो पात्यांशा दशा पर विचार करें। यदि वर्षकुण्डली में वर्ष लग्नेश बली हो, तो हद्दा दशा पर विचार करना चाहिए। वर्षकुण्डली में दृष्टियां जन्मकुण्डली की दृष्टियों से भिन्न हैं जो तीन प्रकार की हैं- मित्र दृष्टि, शत्रु दृष्टि और सम दृष्टि।

मित्र दृष्टियां: वर्षकुण्डली में जिस भाव में ग्रह स्थिति हो वहां से वह तीसरे, पांचवें, नौवें और 11वें भाव को मित्र दृष्टि से देखता है। यदि इन भावों में कोई ग्रह स्थिति हो, तो उस ग्रह पर भी मित्र दृष्टि ही पड़ेगी। जिस ग्रह पर मित्र दृष्टि पड़ रही हो वह ग्रह भी मित्र दृष्टि से ही उस ग्रह को देखेगा।

शत्रु दृष्टियां: जिस भाव में ग्रह बैठा हो वह अपने से पहले, चौथे, सातवें और 10वें भावों पर और इन में बैठे ग्रहों पर शत्रु दृष्टि देता है।

सम दृष्टियां: जिस भाव में ग्रह बैठा हो वहां से वह दूसरे, छठे, आठवें भाव स्थिति के अनुसार फल देता है।

मुन्था जब वर्षकुण्डली में 9वें, 10वें और 11वें भाव में रहता है, तो शुभ फलदायी होता है। पहले, दूसरे, तीसरे और पांचवें भाव में भी मुन्था का फल शुभ होता है लेकिन जब मुन्था चौथे, छठें, सातवें, आठवें और 12वें भाव में रहता है, तो अशुभ फलदायी होता है। मुन्था का शुभ-अशुभ फल भाव स्थिति अनुसार ही माना जाएगा।

वर्षकुण्डली निर्माण और मुन्था को यथा स्थान रखने के बाद वर्षेश निकाला जाता है। वर्षेश अर्थात पूर्ण वर्ष का स्वामी। वर्ष भर में होने वाली घटनाओं को जानने के लिए वर्षेश बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वर्षेश वर्ष के पंचाधिकारियों में से एक को चुना जाता है यह पंचाधिकारी हैं- मुंथेश, जन्म लग्नेश, वर्ष लग्नेश, त्रिराशिपति एवं दिनरात्रिपति। इन पांचों में से जो बली होगा और लग्न में दृष्टि रखता होगा वही वर्षेश होगा। जब सभी पंचाधिकारी लग्न पर दृष्टि भी दे रहे हों और बली भी हों, तो पांचों में से मुंथेश को ही वर्षेश भी माना जाता है। इसके अतिरिक्त यदि कोई भी अधिकारी लग्न को न देख रहा हो, तो मुंथेश को वर्षेश माना जाता है। यदि सभी वर्ष अधिकारी(पंचधिकारी) बलहीन हों, तब भी मुंथेश को ही वर्षेश माना जाता है। भले ही मुंथेश लग्न पर दृष्टि दे या न दे। वर्षेश का निर्णय अधिकतर मुंथेश, जन्म लग्नेश या वर्ष लग्नेश में ही अनुभव हुआ है। 

वर्षकुण्डली में सहम जीवनकी घटनाओं को प्रदर्शित करने की एक विशेष स्थिति है जो जीवन की किसी एक घटना को ही प्रदर्शित करता है। ताज़िक नीलकण्ठी के अनुसार सहम 50 हैं। यदि सहम और उसके स्वामी शुभ हों या शुभदृष्ट हों, तो यह स्थिति सांकेतिक घटना के लिए शुभ फलदायी होती है। घटना की अवधि को इसकी स्थिति, स्वामी तथा उस राशि की स्थिति से ज्ञान किया जाता है। वर्ष फल कथन में किसी विशेष घटना को जानने के लिए सहम महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सहम को निकालने के लिए लग्न एवं ग्रहों के भोगांशों को लेकर सहम की राशि और अंश निकालकर सहम के स्वामी को जाना जाता है। फिर राशि अवधि को पलों में बदल कर घटना घटने की अवधि को दिनों में निकाला जाता है। यह अवधि वर्ष प्रवेश की अवधि में जोड़ देने से घटना घटने की तिथि निकल जाती है। जिस विषय विशेष का समय जानना हो उससे संबंधित सहम की अवधि को ही लेना चाहिए। यदि सहम और उसका स्वामी शुभ हों या शुभ दृष्ट हों, तो सांकेतिक घटना अवश्य घटती है। यदि घटना का सम्बन्ध आयु से भी हो, तो आयु के अनुसार ही घटना घटित होगी। जैसे मान लें किसी के विवाह को ही जानना है। तो विवाह सहम के साथ साथ जातक की आयु को भी देखें कि क्या आयु के अनुसार जातक का विवाह होता है? अर्थात आयु विवाह के लिए है या नहीं। यदि आयु ही 60 वर्ष होगी तो विवाह कैसे संभव हो सकता है? इसलिए आयु के अनुसार ही घटना घटने का निर्णय लें।

वर्षकुण्डली में जन्मकुण्डली से पूर्णतः भिन्न योग होते हैं और इसमें केवल 16 योगों का उल्लेख है, जैसे - इक्कबाल, इन्दुवर, इत्यशाल, इसराफ, नक्त, यमया, मणऊ, कम्बूल, गैरी कम्बूल, खल्लासर रद्द, दुफालिकुत्थ, दुत्थकुत्थीर, तम्बीर, कुत्थ, दूरूफ योग । ये योग ग्रहों के अंश, गति एवं बलाबल पर निर्भर करते हैं एवं फलादेश को सटीक बनाने में बहुत मदद करते हैं।

सर्वप्रथम वर्षकुण्डली बना कर मुन्था-मुंथेश की स्थिति को देखें। फिर वर्षेश निकाल कर दशाएं आदि भी लगा लें। फिर ताजिक योगों की सहायता से फल कथन करने की चेष्टा करें एवं कौन-सी दशा नियम अनुसार देखनी चाहिए इसका निर्णय करे। ज्योतिष अपनाये लाभ बढाये। जय शिव।
फलित ज्योतिष में मुन्थाका महत्त्व (वर्षकुण्डली विवेचन) फलित ज्योतिष में मुन्थाका महत्त्व (वर्षकुण्डली विवेचन) Reviewed by कृष्णप्रसाद कोइराला on अक्टूबर 02, 2018 Rating: 5

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