एकादशी निर्णय

एकादशी का व्रत क्यों करना चाहिए? हिंदू धर्म में इतने व्रत आदि का विधान क्यों है?
लोग अक्सर ऐसे प्रश्न पूछते हैं. आपके सामने भी प्रश्न आए होंगे पर आपको उत्तर देने में असुविधा हुई होगी. जो प्रश्न आज तक असुविधा का कारण बनता था आज से वह आपको गर्व का आभास कराएगा.
एकादशी व्रत या हिंदू धर्म के व्रत के पीछे कितना बड़ा विज्ञान छुपा है उसे सरलता से आम उदाहरणों के माध्यम से समझाने का प्रयास कर रहा हूं. इसे धैर्य से पढ़ेंगे.
यदि आपको जानकारी में रूचि है और सनातन परंपरा पर गर्व महसूस करना चाहते हैं तो यह पोस्ट आपके काम की है, अन्यथा आप समय बर्बाद करेंगे.
बात वहीं से शुरू करनी चाहिए जहां से उद्गम होता है. एकादशी के व्रत का उद्गम पुराणों से होता है इसलिए मैं सबसे पहले पुराण का प्रसंग बताता हूं फिर उसके पीछे के विज्ञान से परिचित कराऊंगा जिसे सुनकर आपका सीना गर्व से फूल जाएगा.

पद्म पुराण का एक प्रसंग है-

जैमिनी ऋषि ने महर्षि वेद व्यासजी से पूछा कि एकादशी का व्रत क्यों करना चाहिए? इस प्रश्न के उत्तर में व्यासजी ने उन्हें एक छोटा सा प्रसंग सुनाया.

भगवान श्रीहरि ने सृष्टि व्यवस्था में अनुचित कार्य का दंड देने के लिए एक पापपुरुष बनाया. उस पापपुरुष को मनुष्य के हर बुरे कार्य के लिए दंडित करने की जिम्मेदारी थी.
श्रीहरि एक बार यमलोक आए तो वहां देखा कि असंख्य लोग दंड भुगत रहे हैं. उन्हें ऐसी आशा न थी कि मनुष्य इतने पाप करता जाएगा और उसके लिए दंडित होता रहेगा. उन्हें दया आ गई.
भगवान ने अपनी आत्मा से एकादशी को प्रकट किया उसे वरदान दिया कि जो एकादशी के दिन विधि-विधान से व्रत करेंगे उनके बहुत से पापों का नाश हो जाएगा. उन्हें ऐसी कठोर यातनाएं न सहनी होंगी और वे मोक्ष को प्राप्त करेंगे.
एकादशी के प्रभाव से सभी मोक्ष पाने लगे.
पाप पुरुष श्रीहरि के पास दौड़ा-दौड़ा गया और अपनी पीड़ा सुनाई कि प्रभु आपने ही मुझे प्रकट किया, आपने ही कार्य दिया और अब आपने ही मुझे व्यर्थ भी बना दिया. सब तो एकादशी के प्रभाव से मोक्ष पा रहे हैं, मैं अब क्या करूं.
श्रीहरि बोले- बात तो तुम्हारी ठीक है किंतु एकादशी को भी मैंने ही यह व्यवस्था दी है. अब उसमें भी फेर-बदल कर दूं तो कल को उसकी भी स्थिति तुम्हारे जैसी होगी तो उसे कैसे संतुष्ट करूंगा. मेरे लिए तो धर्मसंकट है.
पापपुरुष ने कहा- प्रभु एक उपाय है जिससे हमारा कार्य भी हो जाएगा और आपका धर्मसंकट भी टल जाएगा. एकादशी के दिन मुझे अनाज, मटर, मसूर की दाल, बैंगन, मूली, मांस-मदिरा एवं समस्त गरिष्ठ भोजन में वास दे दीजिए.
जो इस दिन इन्हें ग्रहण करेगा उन पर मेरा अधिकार हो जाएगा. मैं उनकी बुद्धि भ्रष्ट करूंगा और वे पाप की ओर उन्मुख होंगे. इस प्रकार मैं भी बेकार नहीं रहूंगा और आपसे शिकायत नहीं करूंगा.
श्रीहरि ने उसे अनुमति दे दी. इस कारण एकादशी को गरिष्ठ पदार्थों के ग्रहण करने से मनाही है.
यह तो है धार्मिक-आध्यात्मिक कथा का पक्ष. सनातन धर्म को विज्ञान पुष्ट बनाए रखने के लिए ऋषि-मुनियों ने विज्ञान के अद्भुत रहस्यों को परंपराओं में बांध दिया ताकि लोग उसका अनुसरण करके स्वतः लाभान्वित होते रहें.
पापपुरूष और श्रीहरि के इस संवाद का विश्लेषण अब वैज्ञानिक आधार पर करेंगे जिसे पढ़कर आप वाह कह उठेंगे.
क्या एकादशी व्रत का कोई वैज्ञानिक रहस्य भी है? क्या यह विज्ञान आधारित है?
जी. यह व्रत पूरी तरह विज्ञान के सिद्धांतों पर आधारित है. गरिष्ठ भोजन के त्याग और एकादशी के दिन आवश्यक रूप से व्रत के विधान के पीछे का विज्ञान आपको बताता हूं.
अमावस्या और पूर्णिमा को सूर्य, चंद्रमा और पृथ्वी की स्थिति ऐसी होती है कि उस दिन पृथ्वी पर वायु का दबाव सर्वाधिक होता है यह बात सभी जानते हैं. इसी कारण इन दिनों समुद्र में बड़े ज्वार-भाटे होते हैं.
अगले दिन समुद्र बहुत शांत रहता है. यह बात समुद्र के किनारे रहने वालों ने अनुभव किया होगा. दबाव के इसी विज्ञान के पीछे एकादशी के व्रत का कारण भी छिपा है.
शरीर विज्ञान कहता है कि जो भी हम आहार लेते हैं उसे पूरी तरह शरीर में अवशोषित होकर उसके सार तत्व को मस्तिष्क तक पहुंचने का पूरा चक्र तीन से चार दिनों तक का होता है.
एक दिन से अधिक तो वह आंतों में रहता है. उसके बाद उसके अवशोषण की प्रक्रिया, अपशिष्ट के शरीर से बाहर निकलने आदि का कार्य चलता रहता है.
इस प्रकार हम जो भोजन एकादशी को लेते हैं वह पूरी तरह से मस्तिष्क को प्राप्त होते-होते पूर्णिमा या अमावस्या आ ही जाती है. पृथ्वी पर इस दिन चंद्रमा की आकर्षण शक्ति का दबाव सबसे अधिक रहता है. जिसके कारण मस्तिष्क के अप्रत्याशित व्यवहार की आशंका सर्वाधिक होती है.
एकादशी व्रत के दौरान गरिष्ठ और तामसी वस्तुओं का त्याग कर दिए जाने के कारण मस्तिष्क को पूर्णिमा या अमावस्या को सात्विक ऊर्जा ही मिलती है. इस कारण उसके विचलित होने की आशंका सबसे कम हो जाती है.
दिमाग जिसे शरीर के सारे निर्णय लेने हैं उसे खुराक ही ऐसी मिलती है कि वह असंतुलित नहीं होता. यह तो हुआ सबसे सामान्य सा कारण. एक और कारण है जिसे आपको जानना चाहिए-
जैसे पूर्णिमा और अमावस्या को चंद्रमा का आकर्षण सर्वाधित होता है क्योंकि उस दिन वह पृथ्वी के ज्यादा निकट होता है. उसी प्रकार सप्तमी के दिन वह सबसे दूर होता है और उसका आकर्षण सबसे कम होता है.
चंद्रमा की उपस्थिति हमारे लिए उपयोगी और आवश्यक है. शास्त्रों में कहा गया है कि न्यूनता और अधिकता दोनों ही उचित नहीं है. एकादशी एक ऐसा दिन है जिस दिन चंद्रमा का दबाव संतुलित रहता है.
कारण वह सप्तमी और अमावस्या या पूर्णिमा के बीच की तिथि है. अर्थात मानव शरीर पर चंद्रमा का प्रभाव एकादशी को सबसे संतुलित होता है. ऋषियों ने इसी शोध का लाभ ले लिया और हमें निरोग रखने का नुस्खा दे दिया.
निरोग होने का नुस्खा मिल गया वह कैसे? आइए इसे भी समझते हैं-
समस्त बीमारियां वात-वित-कफ के त्रिदोषों के कारण होती हैं. पेट जहां अन्न सड़ता है उसकी सफाई बहुत आवश्यक होती है क्योंकि सबसे ज्यादा बीमारियां इसी कारण होती हैं.
आप अपने घर की सफाई-सजावट उस दिन सबसे ज्यादा बढ़िया से करते हैं जिस दिन आपको ऑफिस जाने का कोई दबाव न हो. ऑफिस जाना यानी अतिरिक्त कार्य का दबाव न हो.
एकादशी के दिन शरीर पर बाहरी शक्ति (चंद्रमा) का अतिरिक्त दबाव नहीं होता. वह सबसे ज्यादा संतुलित और संयमित रहता है. यानी जैसे आप छुट्टी के दिन आनंद के मूड में होते हैं तो जो भी करते हैं मन से करते हैं.
एकादशी के दिन को भी वैसा ही समझ लें. इसलिए शरीर के पाचनतंत्र की सफाई के लिए एकादशी से बेहतर दिन क्या हो सकता है?
कितनी चतुराई कितनी बुद्धिमानी दिखाई हमारे ऋषियों ने क्योंकि वे जितना खगोलीय ज्ञान रखते थे उतना आज के विज्ञान के पास अभी तक नहीं है.
यदि एकादशी के दिन शरीर की सफाई करने के लिए उसकी खुराक की आपूर्ति कम भी हो तो भी शरीर आसानी से झेल जाएगा क्योंकि वह आनंद की अवस्था में है. कोई अतिरिक्त दबाव नहीं झेल रहा है.
इससे तो शरीर का नुकसान होने के बजाय लाभ ही हो जाएगा और पाचन तंत्र की सफाई भी हो जाएगी.
अगले दिन यानी द्वादशी को यथाशीघ्र भोजन ग्रहण करने को कहा जाता है. इसलिए द्वादशी के दिन पारण का मुहूर्त बहुत जल्दी सुबह होता है. उस मुहूर्त में पारण नहीं करने पर एकादशी को व्यर्थ बताया जाता है.
यह बंधन शरीर विज्ञान को ध्यान में रखकर बनाया गया है ताकि उसकी ऊर्जा आपूर्ति बाधित न हो. क्या आपको अब एकादशी की वैज्ञानिकता का आभास हुआ.
मैं समझ रहा हूं, आपके ज्यादातर प्रश्नों के उत्तर तो मिल चुके हैं पर कुछ प्रश्न और उठे हैं. चलिए उनका भी निदान किए देते हैं. आपको और सरल तरीके से समझाता हूं.

हिंदू धर्म में इतने व्रतों का प्रावधान क्यों हैं?

व्रत यानी भूखे होने से पहले इस बात को समझते हैं कि खाने के बाद क्या फर्क पड़ता है. जब हम भोजन करते हैं तो हमें नींद सी आने लगती है- ऐसा क्यों होता है? कभी सोचा है.

हम जब खाना खाते हैं तो उसे पचाने से पहले उसे अच्छी तरह से पीसने और मिक्स करने के लिए हार्मोन्स के रूप में निकलने वाले एसिड की आवश्यकता होती है. उसके लिए शरीर का रक्त प्रवाह पेट की ओर हो जाता है.
मस्तिष्क को सप्लाई होने वाले रक्त में कुछ कमी आती है इसलिए वह सुस्त पड़ने लगता है और हमें नींद सी आती है. जितना गरिष्ठ भोजन करते हैं उसे तोड़ने के लिए उतने ही अधिक एसिड की आवश्यकता होती है.
इसलिए ज्यादा खाने से ज्यादा नींद आती है. सुबह नाश्ते के बाद नींद नहीं आती क्योंकि पहले से ही रात का एसिड जमा रहता है जो काम में आ जाता है.
एकादशी के व्रत के समय इसलिए माला जप, गीता पाठ आदि का विधान है. इससे मन को एकाग्रचित करने में सहायता मिलती है. मस्तिष्क को रक्त का संचार कम होता है तो वह थोड़ा अवचेतन अवस्था में रहता है. उस दौरान ध्यान भटकता कम है.
उस समय का विद्वान लोग चिंतन में प्रयोग कर लेते हैं क्योंकि सुस्त मस्तिष्क पूरी तरह सक्रिय नहीं रहता.
मस्तिष्क को आप कंप्यूटर या मोबाइल का प्रोसेसर समझिए. उसमें जितने ज्यादा एप्पस खुले रहेंगे उतनी ही अधिक बैटरी की खपत होती रहेगी, आपका नेट यूज होता रहेगा, कैशे मेमरी भरती रहेगी.
बैटरी यदि पूरी न हो तो कई एप्पस काम ही नहीं करेंगे. तब आप सिर्फ वे ही एप्प चलाएंगे जिन्हें आप चलाना चाहते हैं. जैसे घर में बिजली चली जाती है और इन्वर्टर पर बिजली चलती है तो अनावश्यक बल्ब आदि बुझा दिए जाते हैं.
उसी प्रकार व्रत की अवस्था में आपका आपके दिमाग रूपी मोबाइल पर कंट्रोल बढ़ जाता है जिसका प्रयोग सकारात्मक चिंतन के लिए कर सकते हैं.
साधकों के लिए अपने मन को नियंत्रित रखकर ज्ञान चिंतन में प्रयोग की आवश्यकता थी. इसलिए उन्होंने व्रतों और व्रतों के दौरान लिए जाने वाले आहारों पर शोध करके अपना मत रखा.
सारे व्रत गृहस्थों के लिए नहीं है क्योंकि उन्हें बहुत से ऐसे कार्य करने होते हैं जिनमें शारीरिक श्रम चाहिए, मानसिक श्रम नहीं.
उनके लिए तो खुराक अच्छी चाहिए लेकिन जो दिमागी कार्य ज्यादा करते थे उन्हें मन को शांत रखना होता था. इसलिए ऋषियों ने स्वयं को व्रत आदि में बहुत बांधकर रखा.
हर व्रत का अलग माहात्म्य बताया जाता है. उससे अलग-अलग फल की प्राप्ति की बात की जाती है. वे बातें हवा में नहीं होतीं. बहुत शोध है उनके पीछे भी. इस विषय पर चर्चा भी कभी करूंगा. वैसे आपको बहुत कुछ अंदाजा हो चुका होगा.
जाते-जाते अमेरिका के मनोचिकित्सकों के एक शोध से भी परिचित करा देता हूं जो एकादशी के व्रत की वैज्ञानिकता को प्रमाणित करता है.
मानव शरीर में 80 प्रतिशत से अधिक जल तत्व है. पूर्णिमा और अमावस्या को चंद्रमा की आकर्षण शक्ति में वृद्धि हो जाती है. चंद्रमा की आकर्षण शक्ति का सबसे अधिक प्रभाव जल पर होता है.
अमेरिका के मियामी के मनोचिकित्सकों ने एक शोध में पाया कि पूर्णिमा और अमावस्या को उनके पागलखाने में भर्ती मरीज ज्यादा उग्र हो जाते हैं.
उन्होंने शोध करना शुरू किया कि और कहां-कहां अप्रत्याशित चीजें बढ़ जाती हैं तो पता चला कि उस दिन रात में लोगों को अन्य दिनों की अपेक्षा मनोरोगियों से निपटने में सहायता मांगने के फोन ज्यादा आते थे.
दरअसल, मस्तिष्क से कमजोर लोगों के लिए ये दोनों दिन ज्यादा पीडादायी हो जाते हैं.
आपने भी सुना होगा कि भूत-प्रेत आदि का जाल फैलाने वाले ओझा-तांत्रिक पूर्णिमा और अमावस्या को विशेष रूप से सक्रिय रहते हैं.
वैज्ञानिकों ने शोध में पाया कि मस्तिष्क के असंतुलन से होने वाले करीब 50 तरह की बीमारियों के लिए पूर्णिमा और अमावस्या सबसे सक्रिय दिन होते थे. उस दिन मरीज ज्यादा व्यग्र रहते थे.
उन लोगों ने मरीजों को दिए जाने वाले आहार पर अध्ययन आरंभ किया. कई महीनों तक चले शोध में परिणाम मिला कि जिन लोगों को चार दिन पहले आहार नहीं के बराबर दिया गया था उनका दिमाग ज्यादा शांत रहा.
जैसे पूर्णिमा और अमावस्या को दबाव सर्वाधिक होता है वैसे ही सप्तमी को सबसे कम होता है. न तो सबसे कम अच्छा है और न सबसे ज्यादा.
एकादशी दोनों के बीच की तिथि है. उस दिन संतुलन सबसे अच्छा होता है इसलिए पाचनतंत्र को अपने अंदर के विष को नियंत्रित करने में सबसे अधिक सफलता मिलती है.
इसलिए बारह साल से अधिक उम्र के सभी मनुष्यों को एकादशी का व्रत करने को कहा जाता है ताकि उनके शरीर का आत्मशोधन (Self Cleaning) कार्य अच्छे से होता रहे. विदेशी ऐसे ही नहीं अपना रहे सनातन परंपराओं को.
वे ज्यादा चौकन्ने लोग हैं. चीजों को वैज्ञानिकता के आधार पर परखते हैं और फिर उसे ग्रहण करते हैं. हम हिंदू जो इनके साथ ही पले-बढ़े वे इनका मूल्य नहीं समझते.
एकादशी-व्रत विशेष कर वैष्णव मतावलम्बियों के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। शास्त्रों में इसे  विशद रुप से महिमा-मण्डित किया गया है। कहते हैं कि विधिवत इस व्रत को करने से इहलौकिक सुख-शान्ति के साथ-साथ,सर्वविध पाप-क्षय होकर, परमशान्ति यानी कि विष्णुलोक की प्राप्ति होती है। अन्यान्य पुराणों में तो इसकी चर्चा यत्रतत्र है ही,विशेषकर पद्मपुराण में विशद रुप से एकादशी-महात्म्य वर्णित है। यह व्रत प्रत्येक महीने के दोनों पक्षों(कृष्ण-शुक्ल) में एकादशी तिथि को होता है। शास्त्रादेश है कि पूर्वविद्धा यानी दशमी-मिश्रित एकादशी व्रत नहीं करना चाहिए। परविद्धा यानी द्वादशी-मिश्रित पूर्णरुप से भी हो तो ग्राह्य है। यहां यह आशंका हो सकती है कि विद्ध यानी मिश्रण की सीमा क्या है? क्यों कि कहीं न कहीं तिथियों की सन्धि तो होगी ही।इस सम्बन्ध में ऋषियों का मत भिन्न-भिन्न है। शुद्धा और विद्धा में कई मत हैं,जिनमें दो- स्मार्त और वैष्णव अधिक चर्चित हैं।पुनः काल-मतान्तर भी है।यथा- अर्धरात्रि से पूर्व समाप्त होजाने वाली दशमी,रात्रि के अन्तिम प्रहर में समाप्त होने वाली दशमी,अरुणोदय-काल व्यापिनी दशमी,सूर्योदय पूर्व समाप्त होने वाली दशमी ...इत्यादि।कहीं-कहीं सूर्योदय से चार-पांच घटी पूर्व तक की भी बात कही गयी है। एकादशी के दिन सूर्योदय-काल में दशमी हो तो स्मार्तमत से विद्धा है।सूर्योदय से चार घटी पहले यानी अरुणोदय-काल तक दशमी हो तो वैष्णव मत से विद्धा है। ऋषि आगे कहते हैं कि विद्धा का सर्वदा त्याग कर,शुद्धा ही ग्रहण करे। हेमाद्रिमत से विचार करें तो कह सकते हैं कि द्वादशी तिथि जिस दिन समाप्त हो रही हो, उसके पूर्वदिन वाली एकादशी ही ग्राह्य है। द्वादशी यदि दूसरे दिन भी हो तो सूर्योदयीवेधरहित एकादशी ही ग्रहण करे। कुछ आचार्यों के मत से सूर्योदयीवेध वाली एकादशी के दिन,तथा अगले दिन भी अथवा दो एकादशी होतो(तिथिवृद्धि)दूसरी एकादशी ही ग्राह्य है। परमवैष्णवों का मत है कि एकादशी या द्वादशी तिथि की वृद्धि हो तो एकादशी को छोड़कर सीधे द्वादशी को ही एकादशीव्रत करे। लौकिक चर्चा में इसे साधु और गृहस्थ की अलग-अलग एकादशी कहते हैं। इस सम्बन्ध में कहा गया है- दशम्योर्कोदये चेत् स्यात् स्मार्तानां वेध इष्यते। वैष्णवानां तु पूर्वं स्यात् घटिकानां चतुष्टये।। बल्लभाः पञ्चनाडीषु केचिद्यामद्वयं जगुः। पूर्वं सूर्योदयाद्वेधं निर्णये वैष्णवैः समाः।। यो द्वादशी विरामाहः स्मार्तैस्तत्प्रथमं दिनम्। उपोष्यमिति हेमाद्रिर्माधवस्य मतं शृणु।। द्वादश्यां वृद्धिगामिन्यां अविद्धैकादशी यदि। लभ्यते सा व्रते ग्राह्याऽन्यत्र हेमाद्रिनिर्णयः।। केचिदाहुर्विष्णुभक्तैः स्मार्तैः कार्यं व्रत द्वयम्। विद्धायां वा विविद्धायां एकादश्यां परेह्नि च।। समाप्येत परेह्न्यस्मिन् द्वादशी यदि नान्यथा। माधवीय व्रतस्यैव प्रचारो व्रतनिर्णये।। एकादशी द्वादशी वा वृद्धिगा चेत् तदा व्रते। शुद्धाप्येकादशीत्याज्या सदा विद्धापि वैष्णवैः।। एकादशी व्रतं कार्यं परेह्नि त्याज्य वासरान्। असूयानुमगें नात्र कार्य विद्वद्भिरर्थये।।

यदारुणोदये विद्धा दशम्यैकादशी तिथिः ।। तदा तां संपरित्यज्य द्वादशीं समुपोषयेत् ।।
कलावेधे तु विप्रेन्द्रा दशम्यैकादशीं त्यजेत् सुराया बिन्दुना स्पृष्टं गङ्गाम्भ इव सन्त्यजेत्. ॥
एकादशी भवेत्पूर्णा परतो द्वादशी भवेत्।
तदा ह्येकादशीं त्यक्त्वा द्वादशीं समुपोषयेत्।। स्कन्दपुराण।।
भावार्थ :- एकादशी पूर्ण हो अर्थात् पूर्व तिथि दशमी विद्धा न हो और अग्रिम तिथि द्वादशी महाद्वादशी के रूप में हो तब ऐसी अवस्था में एकादशी तिथि में एकादशी व्रत को त्याग कर महाद्वादशी के दिन ही व्रत करना चाहिये।
एकादशी निर्णय एकादशी निर्णय Reviewed by कृष्णप्रसाद कोइराला on अक्टूबर 07, 2018 Rating: 5

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