स्वयं शनि ने बताया है अपने प्रकोप से राहत का सरल निदान

शनिदेव का क्रोध और शनिदेव द्वारा क्रोधित होने पर दिए जाने वाले दंड के बारे में बताने की आवश्यकता नहीं क्योंकि ऐसा कौन है जो इससे परिचित नहीं हैं । शनि प्रसन्न हो जाएं तो रंक को राजा बना दें और अप्रसन्न हो जाएं तो राजाको रंक बनने में पलभर नहीं लगता । मैंने आपको पहले भी इसकी कई कथाएं सुनाई हैं । आप अगर नहीं पढ़ पाए तो अभी ही प्रभु शरणम् एप्पस डाउनलोड कर लें । लिंक ऊपर है । शनिदेव किसे दंड देते हैं और किसके कार्य के लिए स्वयं उपस्थित हो जाते हैं यह भी मैंने बताया था । आज मैं आपको बता रहा हूं कि यदि किसी कारण शनिदेव रूष्ट भी हो गए हैं तो उन्हें मनाया कैसे जाए । शनिदेव न्याय के देवता हैं, ग्रहों के मध्य दंडाधिकारी हैं जिन्हें स्वयं शिवजी ने उचित-अनुचित का निर्णय करके दंड निर्धारित करने और उस दंड का पालन पृथ्वीलोक पर ही सुनिश्चित कराने का अधिकार दिया है । यह बात बिलकुल वैसी ही है जैसे हमारे देश की संसद ने अदालतों को यह अधिकार दिया है और वे स्वयं भी इसमें हस्तक्षेप नहीं करती । अदालतों में सुनवाई होती है और दोषी को दंड दिया जाता है । निर्दोष को मुअावजा भी दिया जाता है और जो दोष को स्वीकार कर पश्चातचाप से भरकर भूल सुधार के लिए तैयार रहता है उसकी सजा कम हो जाती है साथ ही साथ उसे नए सिरे से जीवन आरंभ करने के लिए कुछ भेंट भी दी जाती है । आपने यह सब सुना होगा । बड़े से बड़े अपराधी भी जब मन से पश्चाताप करते हैं और सुधार का संकल्प दिखाते हैं उन्हें क्षमादान के साथ-साथ कुछ धन आदि भी दिया जाता है ताकि वे ईमानदारी से आगे का जीवन आरंभ कर सकें । बिलकुल यही स्थिति शनिदेव की है । वह दंड देते हैं किंतु यदि व्यक्ति ने पश्चाताप करते भूल सुधारने का संकल्प दिखाया तो उसे नया अवसर भी प्रदान करते हैं । आप इस बात को गाठ बांध लें क्योंकि जो बात कही है वह सिर्फ शास्त्रों में नहीं पढ़ी, आजमाई हुई है अनेकों बार । अपने कर्मों का दंड तो हमें भोगना ही पड़ेगा, हां हमारे पश्चाचाताप से और शनिदेव के शरणागत हो जाने से कष्टों में कुछ रियायत मिल जाती है । पीड़ा कम हो जाती है । आप ऐसे समझ लें कि अगर अपराध के लिए थर्ड डिग्री का दंड बनता था तो थर्ड दिग्री की पीड़ा से मुक्ति मिल जाएगी उसके बदले साधारण दंड मिल जाएगा जिसे हम आसानी से झेल जाएं । शनिदेव ने अपने प्रकोप से राहत का मार्ग स्वयं ही बताया था । वह मार्ग जानने से पहले भगवान श्रीराम के पिता महाराज दशरथ की कथा सुन लेते हैं जहां से इसकी पृष्ठभूमि तैयार होती है ।

बात तब की है जब राजा दशरथ अयोध्या के राजा थे । राज्य में भीषण सूखा पड़ा । नारदजी से जब प्रजा का कष्ट न देखा गया तो वह दशरथ के पास आए और उन्हें बताया कि रोहिणी पर शनि की दृष्टि के कारण सूखा पड़ा है । प्रजा त्रस्त है इसलिए आप आनंद छोडकर प्रजा के संकट का समाधान करें । दशरथ राज्य भ्रमण को निकले । एक सरोवर के पास पहुंचे । एक पेड़ पर उन्होंने दो तोतों को बात करते सुना । तोता अपने साथी से कह रहा था- हम सात पुश्तों से यहां रह रहे हैं लेकिन अब अयोध्या छोड़ने में भला है । भीषण सूखा है लेकिन राजा दशरथ अपनी रानियों के साथ ऐशो-आराम में मगन है । पहले नारद और फिर शुक से ऐसी बात सुनकर दशरथ चिंतित हुए । मेरी प्रजा के साथ इंद्र ऐसा बर्ताव कर रहे हैं जबकि मैं उन्हें मित्र समझता रहा और हमेशा उनके लिए युद्धभूमि में खड़ा रहा । यह सोचकर राजा दशरथ का क्रोध सातवें आसमान पर पहुंच गया और वह इंद्र को सबक सिखाने का विचार करने लगे क्योंकि मेघों पर उनका ही आधिपत्य है । दशरथ सीधे इंद्र के दरबार में पहुंचे और उन्हें युद्ध के लिए ललकारा । देवों ने किसी प्रकार दशरथ को शांत कराया । दशरथ ने कहा- सारे मेघ इंद्र के अधीन हैं लेकिन वे अयोध्या पर नहीं बरस रहे । सूखे से प्रजा त्रस्त है । इंद्र बोले- आप हमारे मित्र हैं । मैं आपका अहित क्यों चाहूंगा । यह सब तो शनिदेव के प्रभाव में हो रहा है । आप उनसे रोहिणी पर से अपनी दृष्टि हटा लेने को कहें । उनकी दृष्टि हटते ही बारिश होने लगेगी । तो अयोध्या के विरूद्ध यह षडयंत्र शनिदेव का है । यह जानकर दशरथ के क्रोध की सीमा ही न रही । देवताओं का राजा मेरी प्रजा पर कृपालु है परंतु एक साधारण सा देव मेरी प्रजा को कष्ट दे रहा है! उसे तो तत्काल दंड देना होगा ताकि भविष्य में कोई अन्य देवता मेरी प्रजा को पीड़ित करने की कल्पना भी न कर सके । ऐसे विचारों के साथ क्रोध में भरे दशरथ शनिदेव के स्थान की ओर चल पड़े । राजा दशरथ के रथ की गड़गडाहट शनिदेव के कानों तक भी पड़ी । उन्होंने जान लिया कि यह रथी उनके प्रति बैरभाव रखता है और युद्ध की मंशा से ही आ रहा है । इसे तो अपना प्रभाव दिखाना ही होगा ।
शनि ने क्रोध भरी दृष्टि से दशरथ को देखा । शनि की कोप दृष्टि पड़ते ही राजा के रथ के पहिए टूट गए । वह घोड़े समेत धरती पर गिरने लगे । गरुड़पुत्र जटायु यह सब देख रहे थे । उन्होंने राजा दशरथ से मित्रता का यह सही अवसर समझा । वह तेजी से दशरथ की ओर उड़े । जटायु ने अपने पंख फैला लिया । इससे दशरथ को सहारा मिल गया और वह भूमि पर गिरने से बच गए । जटायु ने दशरथ की प्राण रक्षा की थी । कृतज्ञ दशरथ ने जटायु के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की और दोनों में गहरी मित्रता हो गई । यह मित्रता दोनों ने हमेशा निभाई । इसकी कथाएं कभी सुनाऊंगा । जटायु ने सीताजी को रावण द्वारा हरण से बचाने के लिए युद्ध भी किया था और अपने प्राण गंवाए थे इससे तो आप सब परिचित हैं ही । खैर, अभी पुरानी कथा पर ही लौटते हैं । जटायु ने पूछा कि आप क्रोध से शनिदेव की ओर क्यों गए थे । तब दशरथ ने सारी बात बता दी और परामर्श मांगा । जटायु बहुत बुद्धिमान थे । उन्होंने दशरथ को सुझाव दिया- जो राजा अपने प्रजा की हितों की रक्षा न कर पाए वह तो ऐसे ही राज्यविहीन हो जाता है । उसके राज्य पर किसी अन्य का आधिपत्य हो जाता है । आपने असुरों के विरूद्ध संग्राम में इंद्र की सहायता की है इसी कारण आप सशरीर इंद्रलोक में आते जाते रहते हैं, आतिथ्य मिलता है । यदि आज आप शनिदेव से पराजित होने के बाद शांत रह गए तो आपका वह गौरव समाप्त हो जाएगा । फिर इंद्र भी आपको सम्मान न देंगे । आपको शनिदेव के पास पुनः पराक्रम का परिचय देना चाहिए । संभवतः यही मार्ग है । राजा दशरथ को बात जम गई । उन्होंने फिर से रथ बनाया और सुसज्जित होकप पुनः शनिदेव को चुनौती देने पहुंचे । शनि को बड़ा आश्चर्य हुआ कि मेरी क्रोपदृष्टि के आगे तो देवता हार जाते हैं परंतु एक मानव इसे सहकर फिर से उन्हें चुनौती देने आ गया है! शनिदेव तत्काल समझ गए कि यह कोई पुण्यात्मा और तेजस्वी मानव है । इस पर क्रोध नहीं करना चाहिए । इसकी बात सुन लेनी चाहिए, फिर निर्णय करना चाहिए शनिदेव ने राजा दशरथ से कहा- हे पराक्रमी राजा! मेरी टेढ़ी दृष्टि के कारण गणेशजी को मस्तकविहीन होना पड़ा था, अनेक देवों ने अपना पराक्रम गंवा दिया । तुम भी मृत्यु के मुख में ही समाते-समाते बचे हो परंतु पुनः मुझे चुनौती देने आ पहुंचे । मैं तुम्हारी वीरता से प्रसन्न हूं । मैंने जान लिया है कि तुम न्यायप्रिय राजा हो । प्रजा के कल्याण के लिए मेरा सामना करना फिर से आए हो । जो दूसरों के कल्याण के निमित्त जो अपने प्राण संकट में डाल दे मैं उन पर प्रसन्न होता हूं । इसलिए अब मैं तुम्हारा कोई अहित नहीं करूंगा । तुम्हारे दुःसाहस के लिए मैं तुम्हें क्षमा करता हूं । बताओ तुम यहां क्यों आए हो? राजा दशरथ शनिदेव के ये वचन सुनकर कृतार्थ हुए । उन्होंने एक सुंदर स्तोत्र से शनिदेव की भावपूर्ण स्तुति और पूजा की । शनि इससे बड़े प्रसन्न हुए ।

उसके बाद राजा दशरथ ने अपनी पीड़ा बताई और इंद्रदेव का परामर्श भी बताया । राजा ने कहा आप प्रसन्न हैं तो मेरी प्रजा की कुशलता के लिए रोहिणी पर से दृष्टि हटा लें । शनिदेव ने कहा- हे राजन! जो विधि का विधान है उसे मैं बदलना नहीं चाहता लेकिन तुमसे प्रसन्न हूं इसलिए पूर्णरूप से तो नहीं परंतु तुम्हारे कष्टों के निवारण का एक आंशिक प्रबंध किए देता हूं । मैं आंशिक रूप से रोहिणी पर से दृष्टि हटा लूंगा । इसका प्रभाव यह होगा कि गुजारे लायक वर्षा हो जाएगी । उस वर्षा के जल का प्रजा से कहना कि हर बूंद का सदुपयोग करे । जो अन्न आदि उपजें उसका उचित उपभोग करें । यदि ऐसा होता रहा तो प्राणरक्षा सरलता से हो जाएगी । हे प्रतापी राजा दशरथ मेरी दशा से पीड़ित जो भी व्यक्ति इस स्तोत्र का पाठ करेगा मैं उसके कष्टों का निवारण करुंगा । राजा दशरथ इस वरदान को पाकर प्रसन्न होकर लौटे और प्रजा को आदेश दिया कि शनिवार को इस स्तोत्र से शनिदेव का विधिवत पूजन और तेलदान किया जाए । इस तरह भयंकर सूखे से अयोध्या को मुक्ति मिली । राजा दशरथकृत शनि स्तोत्र का पाठ शनिदेव की कृपा प्राप्त करने के लिए करना चाहिए । शनिदेव के चरणों की ओर ध्यान करके इसका पाठ करना चाहिए । कभी भी उनके मुख की ओर न देखें । शनि की ढैय्या या साढ़े साती के प्रभाव में हैं तो शनिदेव दशरथ कृत शनि स्तोत्र का पाठ और फिर शनि को तेल अर्पण करना और पीपल की जड़ों में संध्याकाल में जल देने से कष्टों से राहत मिलती है ।

दशरथ कृत शनि स्तोत्र
यदि समय बहुत प्रतिकूल चल रहा हो तो शनिदेव को प्रसन्न करने के लिए शनिवार और मंगलवार को दशरथ कृत शनि स्त्रोत का पाठ करें । शनिवार को संध्याकाल में पीपल के वृक्ष के नीचे दीपक जलाकर ग्यारह बार इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिए । शनिदेव को ततैलाभिषेक करना चाहिए और गरीब-दुखियों के प्रति सम्मान और सहयोग का भाव रखना चाहिए तो शनि की पीड़ा से निश्चित रूप से शांति मिलती है । यह उपाय आजमाया हुआ है । जिनकी साढ़े साती या ढैया चल रही हो उनके लिए तो यह उपाय बहुत राहत लेकर आता है । राजा दशरथ ने अपनी प्रजा की शनि के प्रकोप से रक्षा के लिए यह स्तुति की थी ।


नम: कृष्णाय नीलाय शितिकण्ठनिभाय च।
नम: कालाग्निरूपाय कृतान्ताय च वै नम:।।१।।


नमो निर्मांस देहाय दीर्घश्मश्रुजटाय च ।
नमो विशालनेत्राय शुष्कोदर भयाकृते।।२।।


नम: पुष्कलगात्राय स्थूलरोम्णेऽथ वै नम:।
नमो दीर्घायशुष्काय कालदष्ट्र नमोऽस्तुते।।३।।


नमस्ते कोटराक्षाय दुर्निरीक्ष्याय वै नम:।
नमो घोराय रौद्राय भीषणाय कपालिने।।४।।


नमस्ते सर्वभक्षाय वलीमुखायनमोऽस्तुते।
सूर्यपुत्र नमस्तेऽस्तु भास्करे भयदाय च।।५।।


अधोदृष्टे: नमस्तेऽस्तु संवर्तक नमोऽस्तुते।
नमो मन्दगते तुभ्यं निरिाणाय नमोऽस्तुते।।६।।


तपसा दग्धदेहाय नित्यं योगरताय च।
नमो नित्यं क्षुधार्ताय अतृप्ताय च वै नम:।।७।।


ज्ञानचक्षुर्नमस्तेऽस्तु कश्यपात्मज सूनवे।
तुष्टो ददासि वै राज्यं रुष्टो हरसि तत्क्षणात्।।८।।


देवासुरमनुष्याश्च सिद्घविद्याधरोरगा:।
त्वया विलोकिता: सर्वे नाशंयान्ति समूलत:।।९।।


प्रसाद कुरु मे देव वाराहोऽहमुपागत।
एवं स्तुतस्तद सौरिग्र्रहराजो महाबल:।।१०।।
स्वयं शनि ने बताया है अपने प्रकोप से राहत का सरल निदान स्वयं शनि ने बताया है अपने प्रकोप से राहत का सरल निदान Reviewed by कृष्णप्रसाद कोइराला on अप्रैल 24, 2019 Rating: 5

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