भीष्म। द्वादशी व्रत करने से नि:संतानों को संतान की प्राप्ति एवं धन-धान्य का सुख मिलता है। हर साल श्रद्धा पूर्वक मनाया जाने वाला यह पर्व इस साल 4 फरवरी को मनाया जाएगा। इस व्रत को करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। भीष्म द्वादशी व्रत भक्तों के सभी कार्य सिद्ध करने वाला होता है। इस व्रत को पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास के साथ करना चाहिए। इस व्रत की पूजा एकादशी व्रत की भांति ही होती है। भीष्म द्वादशी माघ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी के ठीक दूसरे दिन मनाई जाती है। द्वादशी तिथि में यदि यह तिथि दो दिन तक प्रदोष काल में व्याप्त रहे तो इसे दूसरे दिन प्रदोष काल में ही मनाया जा सकता है। यह व्रत बीमारियों को मिटाता है। इसे गोविंद द्वादशी भी कहते हैं। पूजा की विधि भीष्म द्वादशी के दिन नित्य कर्म से निवृत होकर स्नान के बाद संध्यावंदन करने के बाद षोड़शोपचार विधि से लक्ष्मीनारायण भगवान की पूजा करनी चाहिए। भगवान की पूजा में केले के पत्ते व फल, पंचामृत, सुपारी, पान, तिल, मोली, रोली, कुमकुम, दूर्वा का उपयोग किया जाना चाहिए। पूजा के लिए दूध, शहद, केला, गंगाजल, तुलसी पत्ता, मेवा मिलाकर पंचामृत से तैयार प्रसाद से भगवान को भोग लगता है। पूजन से पहले भीष्म द्वादशी कथा करना चाहिए। कथा केबाद देवी लक्ष्मी समेत अन्य देवों की स्तुति की जाती है। पूजा समाप्त होने पर चरणामृत एवं प्रसाद सभी को दिया जाता है। इस दिन सुबह स्नान करके भगवान विष्णु की पूजा करनी चाहिए और ब्राह्मण को भोजन व दक्षिणा देनी चाहिए। इस दिन स्नान-दान करने से सुख-सौभाग्य, धन-संतान की प्राप्ति होती है। ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद खुद भोजन करना चाहिए और घर परिवार के सभी लोगों को अपने कल्याण व धर्म, अर्थ, मोक्ष की कामना करनी चाहिए। भीष्म द्वादशी कथा यह कथा बहुत रोचक है। भीष्म द्वादशी के बारे में जो कथा प्रचलित है उसके अनुसार, शांतनु की रानी गंगा ने देवव्रत नामक पुत्र को जन्म दिया और उसके जन्म के बाद गंगा शांतनु को छोड़कर चली जाती हैं। क्योंकि उन्होंने ऐसा वचन दिया था। शांतनु गंगा के वियोग में दुखी रहने लगते हैं परंतु कुछ समय बीतने के बाद शांतनु गंगा नदी पार करने के लिए मत्स्यगंधा नाम की कन्या की नाव में बैठ जाते हैं। बाद में सत्यवती नाम से प्रसिद्ध हुई मत्स्यगंधा के रूप सौंदर्य पर शांतनु मोहित हो जाते हैं। राजा शांतनु कन्या के पिता के पास जाकर उस कन्या के साथ विवाह करने का प्रस्ताव रखते हैं। परंतु मत्स्यगंधा (सत्यवती) के पिता राजा के समक्ष एक शर्त रखते हैं कि देवी सत्यवती की होने वाली संतान ही राज्य की उत्तराधिकारी बनेगी, तभी यह विवाह हो सकता है। राजा शांतनु इस शर्त को स्वीकार नहीं करते हैं, लेकिन वे इस बात से चिंतित रहने लगते हैं। जब पिता की चिंता का कारण देवव्रत को मालूम होता है तो वह अपने पिता के समक्ष आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लेते हैं। पुत्र की इस प्रतिज्ञा को सुनकर राजा शांतनु ने देवव्रत को इच्छा मृत्यु का वरदान दिया। इस प्रतिज्ञा के कारण ही देवव्रत, भीष्म पितामह के नाम से प्रसिद्ध हुए। जब महाभारत का युद्ध होता है तो भीष्म पितामह कौरव पक्ष की तरफ से युद्ध लड़ रहे होते हैं और भीष्म पितामह के युद्ध कौशल से कौरव जीतने लगते हैं तब भगवान श्री कृष्ण एक चाल चलते हैं और शिखंडी को युद्ध में उनके समक्ष खड़ा़ कर देते हैं। अपनी प्रतिज्ञा अनुसार शिखंडी पर शस्त्र न उठाने के कारण उन्होने युद्ध क्षेत्र में अपने शस्त्र त्याग दिए, जिससे अन्य योद्धाओं ने अवसर पाते ही उन पर तीरों की बौछार कर दी और महाभारत के इस अद्भुत योद्धा ने शरशय्या पर शयन किया। कहते हैं कि सूर्य दक्षिणायन होने के कारण शास्त्र मतानुसार उन्होंने अपने प्राण नहीं त्यागे और सूर्य के उत्तरायण होने पर महात्मा भीष्म ने अपने नश्वर शरीर का त्याग किया। उन्होंने अष्टमी तिथि माघ को अपने प्राण त्याग दिए उनके तर्पण व पूजन के लिए माघ मास की द्वादशी तिथि निश्चित की गई है, इसीलिए इस तिथि को भीष्म द्वादशी कहा जाता है। इस तिथि में अपने पूर्वजों का तर्पण करने का विधान है। होता है पापों का नाश भीष्म द्वादशी व्रत सब प्रकार का सुख वैभव देने वाला होता है। इस दिन उपवास करने से समस्त पापों का नाश होता है। इस व्रत में ब्राह्मण को दान, पितृ तर्पण, हवन, यज्ञ करने से अमोघ फल प्राप्त होता है। माघ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी के ठीक दूसरे दिन भीष्म द्वादशी का व्रत किया जाता है। भगवान ने यह व्रत भीष्म को बताया था और उन्होंने इस व्रत का पालन किया था, जिससे इसका नाम भीष्म द्वादशी पडा। इस व्रत में ‘ऊँ नमो नारायणाय नम:’ आदि नामों से भगवान नारायण की पूजा अर्चना की जाती है। इस व्रत से लोगों की मनोकामनाएं पूरी होती हैं।
मनोकामनाएं पूरी करता है भीष्म द्वादशी व्रत
Reviewed by कृष्णप्रसाद कोइराला
on
जून 30, 2019
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