पूतना को कृष्ण क्यों माता मानते थे ?

पूतना तो भगवान से बहुत प्रेम करती थी. भगवान के लिए उसके मन में इतना प्रेम इतनी ममता थी कि भगवान को बटुक रूप में देखकर उसके स्तनों में दूध उतर आया था. आपको आश्चर्य लगा रहा है! आपने तो यही कथा सुनी होगी कि वह श्रीकृष्ण के प्राण लेने को आतुर थी फिर मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं कि उसके मन में श्रीभगवान ने लिए ममत्व था. भला माता अपने बच्चे को कभी विष देना चाहती है! फिर पूतना ने तो उन्हें विष देकर मारने का प्रयास किया फिर माता कैसी! इसी कारण भगवान ने उसे दंडित करने के लिए उसके प्राण लिए. भगवान अकारण किसी के प्राण लेते ही नहीं. वह तो अनगिनत युगों से उद्धार के लिए तरस रहे जीवों के प्राण हरकर उन्हें मुक्ति दिला रहे थे. श्रीकृष्ण तो प्रेम और दयालुता की मूर्ति हैं वह नाहक क्यों किसी के प्राण लेने लगे. पूतना कई कल्पों से भगवान की इस कृपा के लिए तरस रही थीं. आप यह कथा पढ़ेंगे तो आपके मन में पूतना के प्रति यदि कोई वैर भाव रहा हो तो वह समाप्त हो जाएगा और आप सहज ही उन्हें प्रणाम करना चाहेंगे. पूतना क्यों वंदनीय हैं इस प्रसंग पर सीधे जाने से पहले श्रीभगवान की लीला कथा से शुरू करते हैं. लीलाधर की हर बात निराली है, रस से भरपूर.

कथा शुरू करते हैं.
गोकुल के राजा नंद पुत्ररत्न की प्राप्ति से आनंद से भर गए. गोकुल में उत्सव मनाया जाने लगा. पूरा गोकुल नंदलाल के दर्शन के लिए उमड़ पड़ा. नृत्य-संगीत के साथ हर्षोल्लास मनाया जाने लगा. श्रीहरि पूर्णस्वरूप में पृथ्वी पर आ गए तो माता लक्ष्मी क्षीरसागर में अकेली हो गईं. उन्हें कहां मन लगना था. सो उन्होंने भी गोकुल में ही अस्तित्व व्याप्त कर लिया. नंद बाबा कुछ समय बाद सालाना कर लेकर मथुरा के राजा कंस के पास पहुंचे. उन्होंने कर जमा कराया और पता चला कि वसुदेवजी मथुरा में ही रह रहे हैं तो वह उनसे मिलने पहुंचे. वसुदेवजी से उन्होंने रोहिणी के पुत्र जिसे योगमाया ने देवकी के गर्भ से निकालकर रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर दिया था उनका हालचाल पूछा. वसुदेव जी की कई पत्नियां गोकुल में छिपकर रह रही थीं. रोहिणी भी कंस के भय से गोकुल में रहती थीं. वसुदेव ने नंदबाबा को बताया कि कंस को यह सूचना हो गई है कि उसका वध करने वाला जन्म ले चुका है इसलिए वह गोकुल में नवजात शिशुओं का वध कराने का प्रयास करेगा. आप अपने पुत्र को लेकर सतर्क रहें.

कंस ने नवजात शिशुओं की हत्या करने के लिए पूतना को भेजा था. वह घूम-घूमकर बच्चों की हत्या कर रही थी. पूतना अपनी इच्छा से रूप बदलती थी. वह अत्यंत सुंदर स्त्री का रूप धर के नंदबाबा के घर पहुंची. श्रीकृष्ण आंगन में थे. भगवान ने उसकी नीयत जान ली तो चुपचाप आंखें मूंदे रहे. पूतना ने यशोदाजी से बालक को मांग लिया और गोद में रखकर स्नेह करने लगी. यशोदाजी ने सोचा गांव में ही किसी की कोई रिश्तेदार आई है. बच्चे को दुलार करना चाहती है तो क्यों रोकना! सो बालक श्रीकृष्ण को दे दिया उसे. पूतना ने भगवान को देखा, भगवान ने भी पूतना को देखा. दोनों की दृष्टि मिली तो भगवान ने इस भाव में देखा जैसे उससे पूछ रहे हों कि कहां थी अभी तक माता? तुम्हारी प्रतीक्षा में ही अब तक दुधमुंहा बना हुआ हूं. पूतना के भाव ऐसे हैं जैसे वह कह रही हो- मैंने अनंत वर्ष की प्रतीक्षा की है आपके लिए आप बस इतनी प्रतीक्षा से अधीर हो गए. संतोष है कि इस प्रतीक्षा का मुझे मनोवांछित फल मिल रहा है. भगवान ने उसे आश्वस्त किया- माता तुम्हारी प्रतीक्षा की घड़ी समाप्त हो गई है. मैंने तुम्हें वचन दिया था कि तुम्हारे स्तनों से दूध अवश्य पीउंगा माता. तो हे माता मैं तुम्हारी मनोकामना आज अवश्य पूरी कर दूंगा.

भगवान ने उसके बाद झट से अपनी माया समेट ली. उनका कार्य पूरा हो चुका था. माता के दूध तभी उतरता है जब वह ममत्व भाव में आए अन्यथा नहीं उतरता. अगर पूतना हत्या के ही भाव से रहती तो भला दूध कैसे उतरता, और भगवान ने तो उसे अनगिनत वर्ष पूर्व ही वचन दिया था कि वह उसके स्तनों से दूध अवश्य पीएंगे?
पूतना के स्तनों में दूध उतर आया. उसने अपने स्तनों पर विष लगा रखा था. वह बाल-गोपाल की हत्या के उद्देश्य से उन्हें दूध पिलाने लगी जिनके नयन से अमृत बरसते हैं उन भगवान का विष क्या बिगाड़ेगा. भगवान ने उसके दोनों स्तनों से दूध पीया और उसे तृप्त किया. पूतना आनंद विभोर हो रही थी. वह चाहती ही नहीं थी कि यह सुख कभी समाप्त होने पाए पर भगवान को तो उसका उद्धार भी करना था. उन्होंने पूतना के प्राण खींचने शुरू कर दिए. वह पीड़ा से चिल्लाने लगी लेकिन श्रीकृष्ण तो छोड़ते ही न थे. दर्द से छटपटाती व असली रूप में आ गई लेकिन प्रभु ने तब भी न छोड़ा. अंततः उसके प्राण निकल गए और छटपटाकर धरती पर गिरी. पूतना का उद्धार हो गया था. छह कोस की भूमि में जो कुछ भी था वह पूतना के शरीर के नीचे दबकर समाप्त हो गया. देवकी और रोहिणी समेत सभी स्त्रियों ने यह देखा तो भयभीत हो गईं. पूतना के मृत शरीर के ऊपर खेल रहे श्रीकृष्ण को उतारा. उन्हें पवित्र करने के लिए गोमूत्र से उनका स्नान कराया गया. उनकी रक्षा के लिए देवताओं की स्तुति की गई. अपने बालक के विषय में अंजान माताएं देवेश्वर की रक्षा का भार देवताओं पर डाल रही थीं. उन पर किसी दुष्ट आत्मा का साया न आया हो इसलिए नजर उतारने के लिए उनके ऊपर से गाय की पूंछ घुमाई गई. भगवान मंद-मंद मुस्कुराते रहे.

अब वह कैसे बताएं कि आपके समान वह भी मेरी माता बनकर ही आई थी. उसे तो मैंने यह वरदान तब ही दे दिया था जब मैंने वामन अवतार लिया था. असुरराज बली को इंद्रपद दिया था तो उसकी पुत्री को मातृत्व सुख का वरदान देना पड़ा था. हुआ यूं था कि भगवान वामन का रूप धरकर दानवेंद्र बली के यज्ञ में पहुंचे थे. भगवान ने छोटे बटुक का रूप धरा था. जब वह बली की यज्ञशाला में प्रवेश कर ही रहे थे कि वहां आतिथ्य सेवा में लगी बली की पुत्री रत्नमाला की दृष्टि उनपर पड़ी. भगवान का बालक रूप इतना मनमोहक था कि रत्नमाला के मन में इच्छा हुई कि काश इस बालक को मैंने अपना दूध पिलाकर पाला होता तो आज इसका सलोना रूप देखकर मुझे कितनी प्रसन्नता होती. ईश्वर अभी कुछ वरदान मांगने को कहें तो मैं यही मांग लूं. रत्नमाला ऐसे विचारों में ही खोई थी. यह सोचते-सोचते ही रत्नमाला के स्तनों से दूध उतर आया पर भगवान उस समय दूधमुंहे स्वरूप में नहीं थे अतः उसकी इच्छा पूर्ण करना संभव नहीं था. भगवान अपनी लीला करने आए थे. तीन पग में उन्होंने बली का सर्वस्व दान में मांगकर उसे सुतल लोक भेज दिया और अगले कल्प में इंद्रपद दे दिया. भगवान ने जब बली के मस्तक पर पांव रखे तो यह देखकर रत्नमाला के क्रोध की सीमाएं पार कर गईं. वह कुछ पल पूर्व उन्हें दूध पिलाने की सोच रही थी तभी उसे भाव आया कि ऐसी संतान को अपना दूध पिलाकर बड़ा करने के स्थान पर तो मैं दूध में विष देकर मार ही देती. यह सब तब उस समय सोच रही थी जब भगवान बली और उसके परिजनों पर अपनी कृपावृष्टि कर रहे थे. भगवान ने रत्नमाला के मन में उमड़ी यह इच्छा भी पूरी करने का वचन दे दिया. तब से रत्नमाला भगवान की कृपा की प्रतीक्षा कर रही थी. प्रभु ने उसकी अभिलाषा पूर्ण कर दी.

पूतना के शरीर का सारा अवगुण सोखकर पवित्र करके मोक्ष प्रदान किया. गोकुल के लोगों ने चिता बनाई और उसके शरीर के कई टुकड़े करके जलाया क्योंकि उन्हें भय था कि कहीं अतृप्त आत्मा उन्हें पीड़ित न करे. भगवान ने उसके शरीर से आसुरी भाव को सोखकर सायुज्य प्रदान किया था इसलिए पूतना की चिता से चंदन और अगर की सुगंध आने लगी. सारा व्रजलोक उसकी सुंगध से भर गया था. नंदबाबा अभी व्रज में प्रवेश कर ही रहे थे कि उन्हें भी सुगंध महसूस हुई. पूछने पर लोगों ने उन्हें सारा हाल कह सुनाया.

हरि अनंत हरि कथा अनंता. बालरूप में भगवान ने अनेक लीलाएं कीं. पृथ्वी को कष्ट देने वाली कई दुष्ट आत्माओं का संहार किया.
पूतना को कृष्ण क्यों माता मानते थे ? पूतना को कृष्ण क्यों माता मानते थे ? Reviewed by कृष्णप्रसाद कोइराला on अगस्त 24, 2018 Rating: 5

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