सावन शुक्लपक्ष की एकादशी को पुत्रदा एकादशी या पवित्रा एकादशी भी कहते हैं. पौष मास में भी पुत्रदा एकादशी होती है. संतान प्राप्ति में जिन्हें बाधा होती है, या संतान जन्म लेने के उपरांत मर जाती है उनके लिए शास्त्रों में जो उपाय कहे गए हैं उनमें से बहुत महत्वपूर्ण है पुत्रदा एकादशी का व्रत. सिर्फ संतानहीन ही नहीं, माता-पिता अपनी संतान के आरोग्य, विघ्न-बाधाओं के नाश एवं सुखद भविष्य की कामना से यह व्रत करते हैं. इस व्रत का शास्त्रों में बहुत माहात्म्य कहा गया है. संतानहीन लोगों को तो खास तौर से इस व्रत को करके घर में या मंदिर में बैठकर संतान गोपाल मंत्र के अनुष्ठान का संकल्प लेना चाहिए और विधि-विधान से जप को पूर्ण करना चाहिए.संतान गोपाल मंत्र का अनुष्ठान किस प्रकार करना चाहिए यह कल हमने विस्तार से बताया था. संतान गोपाल यंत्र की स्थापना के लिए भी यह दिन शुभ माना गया है. यंत्र स्थापना की विधि भी हमने कल बताई थी. यदि आप किसी कारणवश सावन के शुक्लपक्ष की पुत्रदा एकादशी का व्रत नहीं कर पा रहे तो पौष मास की पुत्रदा एकादशी के व्रत का निश्चय स्मरण से कर लें. व्रत नहीं भी कर पा रहे तो माता-पिता में से कोई भी संतान गोपाल मंत्र के अऩुष्ठान का संकल्प ले सकता है. मंत्र बहुत सरल है. प्रयास करें कि जन्माष्टमी से पहले निश्चित संख्या में जप कर लें और फिर जन्माष्टमी को व्रत कर लें. उस दिन आप मंत्र के दशांश का हवन कर सकते हैं.
अब पुत्रदा एकादशी के माहात्म्य, विधि और कथा की बात कर लेते हैं.
पुत्रदा एकादशी का माहात्म्यः
-कहा गया है कि जो पुत्रदा एकादशी के व्रत की कथा ही कहीं सुन लेते हैं उन्हें इसके सुनने मात्र से ही वाजपेयी यज्ञ का फल प्राप्त होता है.
-इसलिए अगर कहीं विधि-विधान से पूजन आदि करके कथा कही जा रही हो वहां अवश्य चले जाना चाहिए और कथा सुन लेनी चाहिए.
-भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को कहा था कि यदि कोई नि:संतान व्यक्ति यह व्रत पूर्ण विधि-विधान व श्रृद्धा से करता है तो उसे संतान की प्राप्ति होती है.
-संतान प्राप्ति में आने वाली बाधाओं से मुक्ति दिलाता है पुत्रदा एकादशी व्रत.
-जिनकी संतान जन्म होने के बाद मर जाती है या लगातार विघ्न-बाधाओं से धिरी रहती है उन्हें भी पवित्रा एकादशी या पुत्रदा एकादशी का व्रत करना विधि-विधान से करना चाहिए.
– पुत्रदा एकादशी का जीवनभर नियम से पालन करने वाले की वंश वृद्धि होती है. उत्तम और कुल का मान बढ़ाने वाली संतानों से युक्त वह व्यक्ति समस्त सुख भोगकर परलोक में स्वर्ग का भागी होता है.
एकादशी की विधिः
एकादशी के पूर्व की रात से ही व्रत का विधान आरंभ हो जाता है. दसमी की रात्रि को सात्विक भोजन लें. पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करें. एकादशी की सुबह नित्यक्रियाओं के बाद साफ वस्त्र पहनकर भगवान विष्णु की प्रतिमा या तस्वीर या मंदिर में (लड्डू गोपाल हों तो और अच्छा) के सामने बैठकर व्रत का संकल्प लें. भगवान से प्रार्थना करें कि हे प्रभु आप मुझे इस व्रत की अनमुति दें. यदि कोई भूल-चूक हो जाए तो अपना अबोध बालक समझकर क्षमा करेंगे. इसके बाद भगवान विष्णु की पूजा विधि-विधान से करें. आप स्वयं भी पूजन कर सकते हैं . यदि स्वयं पूजन करने में असमर्थ हों तो किसी योग्य ब्राह्मण से भी करवा सकते हैं. भगवान विष्णु को पंचामृत से स्नान कराएं. स्नान के बाद उनके चरणामृत को व्रती अपने ऊपर और परिवार के सभी सदस्यों पर छिड़के. फिर उस चरणामृत को पूजन के उपरांत पीना भी चाहिए. भगवान को गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि पूजन सामग्री अर्पित करें. विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करें एवं व्रत की कथा सुनें. संतान गोपाल मंत्र का अनुष्ठान किया है तो उसका जप करते रहें. रात्रि में बिस्तर पर न सोएं. कंबल आदि बिछाकर भूमि पर शयन करें. उपवास में अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए. एक समय फलाहारी ग्रहण किया जा सकता है. द्वादशी को वेदपाठी ब्राह्मणों को भोजन कराकर व दान देकर आशीर्वाद प्राप्त करें. फिर भोजन ग्रहण करें.
पुत्रदा एकादशी की कथाः
महाराज युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से पूछा- हे भगवान! सावन शुक्लपक्ष की एकादशी का क्या नाम है? उसकी विधि क्या है और उसमें किस देवता की पूजा की जाती है? भगवान श्रीकृष्ण बोले- इस एकादशी का नाम पुत्रदा एकादशी है। इसमें भी नारायण की पूजा की जाती है. पुत्रदा एकादशी व्रत का महत्व बड़ा है. इसके पुण्य से मनुष्य तपस्वी, विद्वान और लक्ष्मीवान होता है. इसकी मैं एक कथा कहता हूँ सो तुम ध्यानपूर्वक सुनो. द्वापर युग के आरंभ में महिष्मति का राजा महीजित पुत्रहीन होने के कारण दुखी रहता था. पुत्र सुख की प्राप्ति के लिए राजा ने अनेक उपाय किए लेकिन राजा को पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई. वृद्धावस्था आने लगी. राजा ने प्रजा के प्रतिनिधियों को बुलाया और कहा- हे प्रजाजनों! मैंने राजकोष भरने के लिए कभी किसी के साथ अन्याय नहीं किया. न मैंने कभी देवताओं तथा ब्राह्मणों का धन छीना है. किसी दूसरे की धरोहर भी मैंने नहीं ली, प्रजा को पुत्र के समान पालता रहा. किसी से घृणा नहीं की. सज्जनों की सेवा करता हूं. फिर भी मुझे संतान सुख नहीं मिला. इसका क्या कारण है? राजा महीजित से प्रजा बहुत प्रेम करती थी. राजा के दुखी होने से वे भी दुखी हुए. राजा की चिंता के निवारण का उपाय तलाशने के लिए उन्होंने राजा के मंत्रियों को ऋषि-मुनियों से वन में जाकर सलाह लेने को कहा. मंत्रियों को प्रजा का परामर्श उचित लगा. उन्होंने राजा को इससे अवगत कराया और वन में गए.
मंत्री वन में पहुंचे और किसी योग्य ऋषि की तलाश करने लगे जो उन्हें उनके प्रिय राजा की चिंता से मुक्ति की राह बता सके और एक उत्तराधिकारी प्रदान कर सके. काफी भटकने पर मंत्रियों को कुछ मुनियों ने बताया कि लोमश ऋषि ही इसमें उनका सही मार्गदर्शन एवं सहायता कर सकते हैं. वे खोजते-खोजते लोमश ऋषि के आश्रम तक भी पहुंग गए. निराहार, जितेंद्रिय, जितक्रोध, सनातन के गूढ़ तत्वों को जानने वाले लोमश मुनि वहां ध्यानमग्न दिखे. लोमश मुनि के शरीर पर बड़े-बड़े बाल थे. उनकी आयु ब्रह्मा और इंद्र से भी अधिक बताई जाती थी क्योंकि हर कल्प के साथ ब्रह्मा और इंद्र बदल जाते हैं. एक कल्प के बीतने पर लोमश मुनि के शरीर का एक रोम गिरता था. आश्रम में आगंतुक राजपुरुषों को देखकर मुनि ने उनसे वहां आने का कारण पूछा. मंत्री बोले- हे महर्षे! आप हमारी बात जानने में ब्रह्मा से भी अधिक समर्थ हैं. हमारे धर्मात्मा राजा महीजित प्रजा का पुत्र के समान पालन करते हैं, पर पुत्रहीन होने के कारण वह दु:खी हैं. हम उऩकी प्रजा हैं. अत: उनके दु:ख से हम भी दु:खी हैं. अब आप कृपा करके राजा के पुत्र होने का उपाय बतलाएं ताकि हमारे राजा और हमारा कल्याण हो.
लोमश मुनि ने कहा- नि:संदेह मैं आप लोगों का हित करूँगा. मेरा जन्म केवल दूसरों के उपकार के लिए हुआ है, इसमें संदेह मत करो.
ऋषि ने थोड़ी देर के लिए नेत्र बंद किए और राजा के पूर्वजन्म में गए. वहां का वृत्तांत जानकर उन्होंने बताया- राजा के सेवकों तुम्हारा राजा महीजित पूर्वजन्म में एक निर्धन वैश्य था. इसने कई बुरे कर्म किए. यह एक गांव से दूसरे गांव व्यापार करने जाया करता था. एक बार दो दिनों से भूखा-प्यासा भटकता वह एक जलाशय पर जल पीने पहुंचा. वह द्वादशी का दिन था. उस स्थान पर एक तत्काल की ब्याई गाय जल पी रही थी. गाय को अपने बच्चे को दूध पिलाना था. राजा ने उस प्यासी गाय को वहां से डंडे मारकर हटा दिया. गाय बार-बार आती किंतु उस वैश्य को लगता कि वह जल गंदा हो जाएगा और नहीं पी पाएगा. गाय ने तुरंत ही बच्चे को जन्म दिया था और उसे अपने बच्चे को दूध पिलाना था इसलिए वह प्यासी ही वहां से चली गई. एकादशी के दिन वैश्य निर्जल रहा था. इस कारण से वह राजा हुआ परंतु जिस दिन गाय की सेवा करनी चाहिए उस दिन प्यासी गौ को जल पीने से रोक देने के कारण उसे पुत्र वियोग का दु:ख सहना पड़ रहा है. ऐसा सुनकर सब लोग कहने लगे-हे ऋषि! शास्त्रों में पापों का प्रायश्चित भी लिखा है. अत: जिस प्रकार राजा का यह पाप नष्ट हो जाए, आप ऐसा उपाय बताइए.
लोमश मुनि कहने लगे- पौष मास के शुक्लपक्ष और श्रावण के शुक्ल पक्ष की एकादशी को पुत्रदा एकादशी भी कहते हैं. तुम सब लोग एकादशी का व्रत करो. रात्रि को जागरण करो और अपना पुण्य राजा को दान कर दो.
इससे राजा के पूर्वजन्म का पाप नष्ट हो जाएगा और पुत्र की प्राप्ति होगी. ऋषि के वचन सुनकर सारी प्रजा नगर को वापस लौट आई. जब पुत्रदा एकादशी आई तो ऋषि की आज्ञानुसार सबने व्रत और जागरण किया.
द्वादशी के दिन प्रजा ने पुण्य का फल राजा को दे दिया. उस पुण्य के प्रभाव से रानी ने गर्भ धारण किया और प्रसवकाल समाप्त होने पर उसके एक बड़ा तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ. इसलिए हे युधिष्ठिर! इसका नाम पुत्रदा एकादशी पड़ा. संतान सुख की इच्छा रखने वालों को यह व्रत अवश्य करना चाहिए. इसका माहात्म्य सुनने से पापों से मुक्ति होती है और इस लोक में संतान सुख भोगकर परलोक में स्वर्ग प्राप्त होता है.
पुत्रदा एकादशी पौष मास में भी होती है.
पुत्रदा एकादशी की महात्म्य एवं व्रतकथा
Reviewed by कृष्णप्रसाद कोइराला
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अगस्त 04, 2018
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अगस्त 04, 2018
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