ऐसा क्या किया था मयलोक की तपस्विनी ने कि उसके ऋणी हैं हनुमानजी?

नींव के पत्थरों को कहां बहुत याद किया जाता है. जो गृहस्वामी नींव में पड़े पत्थरों के प्रति कृतज्ञभाव रखता है उसका ही घर सदा-सर्वदा के लिए सुरक्षित रहता है. सारे भूकंप, आंधी-तूफान हंसते-हंसते झेल जाते हैं. आज रामायण के एक ऐसे ही नींव के पत्थर की कथा लेकर आया हूं जिसे आप पढ़ेंगे तो भाव-विभोर हो जाएंगे. संभव है घर-परिवार में आपकी स्थिति भी ऐसी ही हो कि आपके त्याग और समर्पण की कद्र नहीं होती हो तो आप इस कथा को पढ़कर स्वयं से जोड़िएगा.आपकी कद्र लोक में न हो तो क्या हुआ परलोक में होगी. ईश्वर के दरबार में होगी. हनुमानजी जैसे चिरंजीवि आपका आदर करेंगे. हनुमानजी देव हैं, देवताओं से ऊपर हैं. मैं ऐसा क्यों कहता हूं उसके पीछे कारण है. इंद्र भी देव हैं, बल्कि देवराज हैं. श्रीयुक्त यानी लक्ष्मीजी की कृपा छाया में हैं. परंतु देवराज में मत्सर है. मत्सर यानी अभिमान, सृष्टि के अस्तित्व में अपने श्रेय को बढ़ा-चढ़ाकर देखने की लोलुपता, हर स्थान पर अपने गुणगान के लालायित रहने का भाव. इसीलिए श्रीकृष्ण उनका मानमर्दन करते हैं, गिरिराज को अपनी छोटी ऊंगली पर उठाकर उन्हें बताते हैं कि तुम्हारे सामर्थ्य की सीमा तो इस छोटी उंगली के समक्ष घुटने टेक सकती है. मत्सरासुर से परिचित होंगे आप.

इंद्र के भीतर का मत्सर असुर के रूप में प्रकट होता है. वही मत्सर उन्हें एक दिन उस स्वर्ग सुख से वंचित कर देता है जिसके ऐश्वर्य अभिमान से वह इंद्र ग्रसित होते हैं. इसलिए मैंने कहा कि हनुमानजी देवों से ऊपर हैं. परमात्मा की सेवा में लीन रहते हैं- सूर्यपुत्र बाली की भी सेवा करते हैं, श्रीरामकी भी. कहीं कोई अभिमान ही नहींं. जो समर्थवान होकर भी अभिमान से रहित है वह हनुमान है. ऐसे जीव जहां भी मिलें वे हनुमानजी के समान आदरणीय हैं. ऐसे परम आदरणीय, वंदनीय हनुमानजी मयलोक की एक तपस्विनी के ऋणी स्वयं को मानते हैं. हनुमानजी का हृदय उस सागर से ज्यादा विशाल है जिसे उन्होंने एक छलांग में लांघ लिया था इस कारण वह सभी को भरपूर आदर देते हैं. क्या बस इसलिए हनुमानजी उस तपस्विनी के ऋणी हैं या उस तपस्विनी ने सचमुच ऐसा रामकाज किया था कि हनुमानजी का ऋणी होना वांछित है.नीव के पत्थरों को कहां बहुत याद किया जाता है. आज मैं आपको रामायण की पात्र देवी स्वयंप्रभा के बारे में बताता हूं.

माता स्वयंप्रभा का प्रसंग किष्किंधा कांड के लगभग अंतिम प्रकरण में आता है, जब हनुमानजी, राजकुमार अंगद, जाम्बवानजी आदि वीर वानर अपने सहयोगियों के साथ माता सीता की खोज में चले हैं और खोजते-खोजते वह एक विचित्र गुहा (बिल) में घुस जाते हैं. वानरराज सुग्रीवजी के आदेश पर अंगदजी के नेतृत्व में एक खोजीदल माता सीता की खोज में दक्षिण दिशा की ओर चला. इस दल में जाम्वंतजी के साथ हनुमानजी भी थे. मास पर्यंत यानी महीने भर में माता की खोज का आदेश था किंतु भटकते-भटकते एक माह का समय पूरा होने को आ गया था और सफलता का कोई संकेत भी न मिला था. अंगदजी का दल थोड़ा निराश था. दैवयोग से वानरवीरों को ऐसी प्यास लगी कि वे सहन नहीं कर पा रहे थे. ऐसा प्रतीत हो रहा था कि यदि शीघ्र जल न मिला तो प्राण निकल जाएंगे. उन्हें एक विचित्र गुहा यानी बिल से चहचहाते पक्षी बाहर निकलते दिखे. पक्षियों के निकलने से स्पष्ट था कि वे इसी गुहा में से जल पीते होंगे. सभी वीर गुहा में प्रवेश कर गए. वह गुहा अत्यन्त ही अन्धकारमय थी किन्तु हनुमानजी की कृपा से वानर वहां चलने में समर्थ थे. सभी तीव्र वेग के साथ वे उस गुफा के भीतर पहुँचे एक अंदर प्रकाशमय अत्यंत रमणीक स्थान दिखा. उसका सौंदर्य अलकापुरी के सौंदर्य जैसा था. चारों ओर अनेक प्रकार से सुंदर वृक्ष और सुगंधित पुष्प थे. सुंदर सरोवर भी था. सभी वृक्ष सोने जैसे चमक रहे थे जो कौतुहल का विषय था. वृक्षों में मूंगे और रत्नों जैसे फल लदे थे. वहां सोने और चांदी से बने रमणीय महल भी थे.

वानर वीर आश्चर्य में भरे उस स्थान को निहार ही रहे थे कि उनकी दृष्टि वक्कल और काले रंग का मृगचर्म धारण किए एक परम तेजस्विनी साध्वी पर पड़ी. उनका मुख तपस्या के तेज से चंद्रमा की तरह उज्जवल था. बुद्धि और बल के पर्याय हनुमानजी उस देवी के पास गए और प्रणाम कर बोले- देवि! आप कौन हैं? यह गुफा, ये भवन तथा ये समस्त धन-धान्य किसके हैं?  हम वानर-रीक्ष आदि रामकार्य के लिए निकले हैं और भूख-प्यास से व्याकुल होकर जल की आशा से इस गुहा में चले आये हैं किन्तु यहां तो सबकुछ इस लोक का लगता ही नहीं. ऐसा प्रतीत होता है कि हम इंद्रदेव की अलकापुरी में हैं. देवी यह सब आपकी तपस्या के प्रभाव से सिद्ध हुआ है या यह कोई आसुरी माया है? मेरी शंका समाधान करें.

तपस्विनी ने उन्हें कहा- सबसे पहले तो आप सब को यह बता दूं कि यह ऐसा मायालोक है जिसमें आने के बाद कोई भी जीव यहां से तबतक बाहर नहीं जा सकता जब तक कि इस लोक के रक्षक की आज्ञा न हो. ऐसी व्यवस्था स्वयं ब्रह्माजी ने दी है. यह सुनकर बहुत से वानर वीर चिंता में पड़ गए. उनकी चिंता देखकर तपस्विनी ने उन्हें मधुर वचन कहे जिससे उनके मन की चिंता मिटी. तपस्विनी बोलीं- यहां जो आ पहुंचा है वह कोई साधारण प्राणी हो ही नहीं सकता. यह तो गुप्त से भी गुप्त है. आप सब देवदूत हैं यह तो मैं समझ सकती हूं. पर यहां कैसे पहुंचे! जितनी जिज्ञासा आपके मन में इसे जानने की है उतनी ही जिज्ञासा मुझे भी हो रही है परंतु उससे पहले आप सब भोजन-जल ग्रहण कर प्राणरक्षा करें फिर बताती हूं. 

देवी की यह बात सुनकर सभी आनंदित हुए और फल-मूल आदि खाकर शीतल जल का आनंद लिया. जब सभी भोजन से तृप्त हो गए तो तपस्विनी ने अपनी करूण कथा सुनानी शुरू की.  तेज से प्रदीप्त साध्वी ने बताया- मेरा नाम स्वयंप्रभा है. इस दिव्य सुवर्णमय उत्तम भवन को जिसे देखकर आप सब आश्चर्य में पड़े हैं उसे असुरों के विश्वकर्मा मयासुर ने बनाया है. मयासुर इस भवन में निवास करते थे.  इंद्रलोक की अप्सरा हेमा मयासुर के इस ऐश्वर्य पर मुग्घ हो गईं. उन्हें मयासुर से प्रेम हो गया. मैं हेमा की प्रिय सखी हूं. इंद्र को जब पता चला कि उनकी अप्सरा को असुर से प्रेम हुआ है तो वह युद्ध करने चले आए. दोनों में युद्ध आरंभ हो गया. इंद्र ने मयासुर पर वज्र से प्रहार किया. मयासुर का अंत हो गया. इंद्र के इस आचरण से हेमा को बहुत आघात लगा.  उसने देवकन्या होने पर भी किसी भी हाल में यहां से जाने से मना कर दिया. तब ब्रह्माजी ने इस वन को हेमा के संरक्षण में दे दिया. हेमा सुरक्षित रहे इसके लिए उन्होंने व्यवस्था दी कि बिना उसकी अनुमति के प्रवेश करने वाला जीव इसी माया में उलझकर प्राण दे देगा. अब यह स्थान हेमा के ही आधीन है. मैं हेमा की प्रिय सखी हूं इसलिए उसका त्याग नहीं कर सकती. उसी के द्वारा नियुक्त होकर मैं इस स्थान का संरक्षण करती हूं. अब आप सब बताएं कि किस प्रयोजन से घूमते यहां तक आ पहुंचे. कौन सा रामकाज करने निकले हैं?

हनुमानजी ने स्वयंप्रभा को बताया- श्रीराम अपनी पत्नी सीता और अनुज लक्ष्मण के साथ दण्डकारण्य में निवास कर रहे थे. रावण ने छल से माता सीता हरण कर लिया है और किसी लोक में ले जाकर छुपा दिया है. वह मायावी है इसलिए हम उसे खोज नहीं पा रहे. श्रीराम ने वानरराज सुग्रीव पर उपकार किया है. हम उनके सेवकगण मित्र हैं और जानकीजी की खोज में निकले हैं. आपने श्रीराम के दूतों की प्राण रक्षा कर बड़ा उपकार किया है. आज्ञा दें कि इसके प्रत्युपकार में हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं.  सर्वज्ञा स्वयंप्रभा मंगलमय वाणी में कहती हैं-हे रामदूत! मैं किसी से कोई अपेक्षा नहीं करती और न कोई मेरे लिए कुछ कर सकता है. आप अपने कार्य पर ध्यान दें. यह सुनकर हनुमानजी ने उन्हें प्रणाम किया और फिर बोले- हे श्रेष्ठ तपस्विनी! हे परम तेजस्विनी देवि! आपकी कृपा से हम प्राण-संकट से तो बच गए पर एक धर्म-संकट में पड़ गए हैं. आपने जिस प्रकार हमारी प्राण रक्षा की वैसे ही हमारी धर्म रक्षा कीजिए. हमें एक मास के अंदर माता सीता का पता लगाकर वापस पहुंचना है पर एक मास की अवधि बीत चुकी है और हमें किसी भी हालत में जल्दी वापस जाना है. इसके लिए आप हमें इस बिल से बाहर पहुंचने में सहायता करें. राजकुमार अंगद हमारे नायक हैं. हमारा प्रण है कि हम मासदिवस में रामकाज पूर्ण करके ही लौटेंगे. हे माता यदि हम यह नहीं कर पाए तो कुमार अंगद पर लांछन लगेगा कि वह संभवतः यह कार्य करना ही नहीं चाहते. संभव है वीर अंगद इस अपमान के कारण अपना प्राणत्याग दें. जिन दल का नायक ही प्राण त्याग दे उस दल के सदस्य का जीवन किस उपयोग का. इसलिए हे देवी आप इस धर्मसंकट से रक्षा करके प्राणसंकट का निदान करें. तपस्विनी स्वयंप्रभा हनुमानजी के बुद्धिमता से पूर्ण वचन सुनकर प्रभावित हो गईं. उन्होंने कहा- हे वानरश्रेष्ठ! आपकी बुद्धिमता अतुलित है. अपने स्वामी का कार्य के प्रति आपका समर्पण और आपके बुद्धिबल को देखते हुए इस बात में कोई संदेह ही नहीं कि आप जिस कार्य के लिए निकले हैं वह अपूर्ण रहे. वानरवीरों! यद्यपि इस स्थान में आ जाने वाला जीवन भर यहां से बाहर नहीं निकल सकता किन्तु मैं अपने तप के प्रभाव से सब को यहां से बाहर निकाल दूंगी. सभी अपनी आंखें बंद कर लें. वानर वीरों के आंखें मूंदते ही स्वयंप्रभा ने पलक झपकने भर की देर के बाद उन्हें आंखें खोलने को कहा. सभी गुफा से बाहर आ चुके थे. सामने समुद्र लहरा रहा था. देवी स्वयंप्रभा बोलीं- इस रामकाज में मेरा भी योगदान हो गया. अब आप सब आगे का मार्ग अपने बुद्धि, बल और विवेक से तय करेंगे, इसका मुझे पूर्ण विश्वास है. आपका कल्याण हो.वे सभी सागरतट पर उस स्थान पर पहुंच गए जहां वयोवृद्ध गिद्धराज संपाति मरणासन्न स्थिति में पड़े थे. इतना कहकर तपस्विनी स्वयंप्रभा पुनः तप के लिए चली गईं.
ऐसा क्या किया था मयलोक की तपस्विनी ने कि उसके ऋणी हैं हनुमानजी? ऐसा क्या किया था मयलोक की तपस्विनी ने कि उसके ऋणी हैं हनुमानजी? Reviewed by कृष्णप्रसाद कोइराला on अप्रैल 24, 2019 Rating: 5

कोई टिप्पणी नहीं:

ads 728x90 B
Blogger द्वारा संचालित.