हिंदू धर्म में श्राद्ध
तर्पण का बड़ा महत्व कहा गया है. सनातन पुनर्जन्म और पूर्वजन्म की अवधारणाओं को
मानता है. हमारी वैदिक मान्यताएं और ज्योतिष आदि सब इसे मानते हैं. इस मान्यताओं
में पितरों की तृप्ति बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है. इसीलिए बहुत जरूरी हो जाते हैं
श्राद्ध तर्पण कर्म. आपको प्रभु शरणं में इन्हीं पितृ कार्यों से जुड़ी काम की
जानकारियां दी जा रही है. ये आपके हमेशा काम आएंगी.
हिंदू धर्म में पितृपक्ष
यानी श्राद्ध पक्ष को लेकर बहुत महत्व है. इन दिनों अपने पितरों का स्मरण किया
जाता है और श्राद्ध तर्पण करके उनसे आशीर्वाद लिया जाता है. सबसे पहले श्राद्ध
तर्पण कर्म किसने किया था इस बारे में स्पष्ट तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता.
श्राद्ध तर्पण को लेकर शास्त्रों में विस्तृत चर्चा मिल जाती है. गरूड़ पुराण में
तो श्राद्ध तर्पण आदि पर बहुत विस्तार से और कथाओं के माध्यम से बताया गया है.
महाभारत काल में श्राद्ध
तर्पण कर्म होते थे इसके बारे में पता उन बातों से चलता है जिसमें भीष्म पितामाह
ने युधिष्ठिर को श्राद्ध के संबंध में कई बातें बताई हैं. साथ ही भीष्म ने श्राद्ध
की परंपरा की शुरुआत और धीरे-धीरे जनमानस तक परंपरा के पहुंचने के संदर्भ में भी
बताया है.
महाभारत के अनुसार, सबसे पहले महातपस्वी अत्रि ने महर्षि निमि को श्राद्ध के बारे में
उपदेश दिया था. इसके बाद महर्षि निमि ने श्राद्ध करना शुरू कर दिया. महर्षि को
देखकर अन्य ऋषि-मुनियों ने पितरों को अन्न देने लगे. लगातार श्राद्ध का भोजन
करते-करते देवता और पितर पूर्ण तृप्त हो गए.
लगातार श्राद्ध का भोजन
पाने से देवताओं पितरों को अजीर्ण रोग हो गया और इससे उन्हें परेशानी होने लगी. इस
परेशानी से छुटकारा पाने के लिए वे ब्रह्माजी के पास गए और अपने कष्ट के बारे में
बताया. देवताओं और पितरों की बातें सुनकर उन्होंने बताया कि अग्निदेव आपका कल्याण
करेंगे.
अग्निदेव ने देवताओं और
पितरों को कहा कि अब से श्राद्ध में हम सभी साथ में भोजन किया करेंगे. मेरे पास
रहने से आपका अजीर्ण भी दूर हो जाएगा. यह सुनकर सभी प्रसन्न हो गए. इसके बाद से ही
सबसे पहले श्राद्ध का भोजन पहले अग्निदेव को दिया जाता है, उसके बाद ही देवताओं और पितरों को दिया जाता है.
शास्त्रों में इस बात का
उल्लेख मिलता है कि हवन में जो पितरों के निमित्त पिंडदान दिया जाता, उसे ब्रह्मराक्षस भी दूषित नहीं करते. इसलिए श्राद्ध में अग्निदेव को
देखकर राक्षस भी वहां से चले जाते हैं. अग्नि हर चीज को पवित्र कर देती है. पवित्र
खाना मिलने से देवता और पितर प्रसन्न हो जाते हैं.
पिंडदान सबसे पहले पिता को, उनके बाद दादा को और उनके बाद परदादा को देना चाहिए। शास्त्रों में
यही श्राद्ध की विधि बताई गई है. जिसका भी पिंडदान आप दे रहे हैं, उस समय एकाग्रचित्त होकर गायत्री मंत्र का जाप तथा सोमाय पितृमते
स्वाहा का जप करें.
इन तीन पिंडों का है विधान
महाभारत के अनुसार, श्राद्ध में तीन पिंडों का विधान है. पहला पिंड जल में दें, दूसरा पिंड गुरुजनों को और तीसरा पिंड अग्नि को दें. इससे मनुष्य की
समी कामनाएं पूर्ण होती हैं. पितृ पक्ष यानी श्राद्ध पक्ष हर साल भाद्रपद की शुक्ल
पक्ष की पूर्णिमा से लेकर अश्विन कृष्ण पक्ष अमावस्या तक रहते हैं.
जो श्राद्ध तिथि में नहीं
करते पिंडदान, पितर करते हैं उनका रक्तपान. श्राद्ध कर्म से पितर
तृप्त होते हैं. जिस कुल में पितर तृप्त नहीं वह कुल कभी सुख-शांति से नहीं रह
सकता. श्राद्ध कर्म, तर्पण से जुड़ी काम की सारी बातें.
भाद्रपद शुक्लपक्ष की
पूर्णिमा से ही श्राद्ध कर्म आरंभ हो जाते हैं. प्रतिपदा तिथि प्रथम श्राद्ध का
दिवस है. आज हम आपको श्राद्ध कर्म से जुड़ी सभी महत्वपूर्ण और उपयोगी बातें
बिंदुवार बताएंगे. याद रहे शास्त्र कहते हैं कि तमाc पूजा-पाठ-व्रत-अनुष्ठान आदि
के बाद भी आपके कष्ट नहीं दूर हो रहे तो इसका अर्थ है कि आप पितृदोष से ग्रसित
हैं. पितर अप्रसन्न, अतृप्त हैं. जिनके पितर तृप्त नहीं रहते उन्हें
पूजा-पाठ का पूर्ण फल नहीं मिलता.
श्राद्ध कर्म तर्पण आदि क्यों जरूरी है?
- पितृपक्ष में पितरों को प्रसन्न रखने का सरल उपाय
- किन मंत्रों से किस प्रकार पिंडदान करना चाहिए?
- पिंड निर्माण की वैदिक विधि क्या है?
- श्राद्ध कर्म की तिथि का निर्धारण कैसे हो?
- किस दिन कुल के किसका श्राद्ध कर्म किया जाता है?
- श्राद्ध कर्म 2017
की तिथियां कौन सी हैं?
- सबसे पहले जानें
कि श्राद्ध कर्म क्यों जरूरी है-
भारतीय शास्त्रों में
देवकार्य अर्थात पूजा-हवन, व्रत, यज्ञ को जितनी प्रमुखता दी
गई है उससे कम महत्ता पितृपूजा को नहीं है. श्राद्ध कर्म परम कल्याणकारी कार्य है.
पितरों की संतुष्टि के लिए विधिपूर्वक श्राद्ध कर्म करना चाहिए. जो व्यक्ति सिर्फ
देवकार्य करते हैं लेकिन श्राद्ध कर्म नहीं करते उनके देवकार्य का वह लाभ नहीं
प्राप्त होता जो होना चाहिए था.
सरल भाषा में समझें तो जिस
घर में बड़े-बूढ़े भूखे प्यासे हैं उस घर में आकर देवता भोज कैसे ग्रहण करेंगे? वैसे तो पितरों को प्रतिदिन जल से श्राद्ध करना चाहिए. जो ऐसा नहीं
कर पाते उनके लिए पितृपक्ष में श्राद्ध के विशेष दिन बताए गए हैं. जो इन दिनों में
भी श्राद्ध कर्म तर्पण आदि नहीं करते, पितृगण उनका रूधिर यानी
रक्तपान करते हैं.
श्राद्ध की महत्ता ऐसी है
कि माता सीता ने पितरों के लिए पिंडदान और श्राद्ध किया था. सप्तर्षियों में शामिल
अगस्तय ऋषि ने एक बार वृक्ष से उलटा लटककर रोते हुए अपने पितरों को देखा. अपने
पुण्यकर्मों से उन्हें स्वर्ग प्राप्त हुआ था किंतु फिर भी वे दुखी थे.
अगस्त्य ऋषि विवाह नहीं कर
रहे थे. उनके पितरों को आशंका थी कि यदि वंश समाप्त हो गया तो उन्हें श्राद्ध
तर्पण नहीं मिलेगा. इससे उन्हें स्वर्ग से निष्कासित होकर इसी तरह दुखी रहना
पड़ेगा. पितरों द्वारा श्राद्ध कर्म जैसे पितृकार्य की महत्ता सुनने के बाद महर्षि
अगस्त्य को निर्णय बदलना पड़ा था.
माना जाता है कि पितृपक्ष
की अवधि में हमारे पितृगण पृथ्वी पर आते हैं. एक पक्ष यानी 15 दिनों तक पृथ्वी पर रहने और संतुष्ट होने के बाद पितर पितृलोक को लौट
जाते हैं. इस दौरान पितृ अपने परिजनों के समीप ही स्थित रहकर आनंद का अनुभव करना
चाहते हैं. इसलिए पितृपक्ष में कोई भी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जिससे पितृगण की
मर्यादा खंडित हो और वे नाराज हों.
पितरों को प्रसन्न रखने के लिए विशेष ध्यान देने की बातें-
- पितृपक्ष के दौरान यथासंभव ब्राह्मण, जामाता, भांजा, मामा, गुरु, नाती
को भोजन कराना चाहिए.
- ब्राह्मणों को भोजन करवाते समय भोजन का पात्र दोनों हाथों
से पकड़कर लाना चाहिए अन्यथा भोजन का अंश राक्षस ग्रहण कर लेते हैं. फिर यह
भोजन पितृगणों को प्राप्त नहीं होता.
- पितृपक्ष में द्वार पर आने वाले किसी भी जीव-जंतु को
पीड़ा न दें.
- प्रतिदिन रसोई में से गाय,
कुत्ते, कौआ, बिल्ली
आदि के लिए सबसे पहले अंश निकाल दें. उन्हें खिलाएं. इससे पितरों को तृप्ति
होती है.
- शाम के समय घर के द्वार पर एक दीपक जलाकर रखने का भी
विधान है.
- यथासंभव दवार पर आए किसी भी प्राणी का सत्कार करना चाहिए.
श्राद्ध की तिथि का
निर्धारण कैसे करें. किस तिथि को होता है किसका तर्पण अगले पेज पर जाने…
श्राद्ध की सबसे उत्तम तिथि
वह है जिस तिथि को पूर्वजों का निधन होता है. उसी तिथि को उनका श्राद्ध करना सबसे
उत्तम है. जिन्हें परिजनों की मृत्यु की तिथि ज्ञात नहीं उनके लिए पितृपक्ष में
कुछ विशेष तिथियां कही गई हैं. वे पितरों का उस दिन श्राद्ध कर्म कर सकते हैं.
किस तिथि को होता है कि किसका श्राद्ध कर्म तर्पणः
- भाद्रशुक्ल
पूर्णिमाः श्राद्ध की शुरुआत भाद्रपद शुक्ल की पूर्णिमा से ही हो
जाती है. इस तिथि को नाना-नानी पक्ष का श्राद्ध किया जाता है. यदि नाना-नानी
के परिवार में कोई श्राद्ध तर्पण करने वाला न हो और उनकी मृत्यु की तिथि याद
न हो तो इस दिन नाती उनका श्राद्ध कर सकते हैं.
- पंचमी तिथिः ऐसे
पितर जिनका देहांत अविवाहित अवस्था में ही हो गया उनका श्राद्ध कर्म इस तिथि
को करना चाहिए.
- नवमी तिथि: सौभाग्यवती
स्त्री जिसकी मृत्यु उसके पति से पूर्व हुई हो उनका श्राद्ध नवमी को किया
जाता है. यह तिथि माता के श्राद्ध के लिए भी उत्तम मानी गई है इसलिए इसे
मातृनवमी भी कहा जाता है. इस तिथि पर श्राद्ध कर्म से कुल की सभी दिवंगत महिलाओं
का श्राद्ध हो जाता है.
- चतुर्दशी तिथिः जिनकी
अकाल मृत्यु हुई हो यानी स्वाभाविक मृत्यु न हुई हो और उनके श्राद्ध का दिवस
ज्ञात नहीं है, ऐसे लोगों का श्राद्ध कर्म चतुर्दशी को करें.
- सर्वपितृमोक्ष
अमावस्या: यह श्राद्ध की सबसे उत्तम तिथि है. जिन्हें अपने पितरों
के श्राद्ध की तिथि ज्ञात नहीं या किसी कारण से पितृपक्ष की अन्य तिथियों पर
पितरों का श्राद्ध कर्म से चूक गए हैं वे इस दिन तर्पण करें. इस तिथि पर सभी
पितरों का श्राद्ध किया जा सकता है. इस दिन श्राद्ध कर्म तर्पण आदि से कुल के
सभी पितरों का श्राद्ध हो जाता है.
- जिन लोगों का मरने पर अंतिम संस्कार विधिवत नहीं हुआ हो
उनका श्राद्ध कर्म भी पितृपक्ष की अमावस्या को करना चाहिए.
कैसे करें पिंडदान, श्राद्ध कर्मः
- श्राद्ध कर्म तर्पण और पिंडदान में श्वेत वस्त्र ही धारण
करें.
- जौ के आटा या खोया से पिंड का निर्माण कर लें.
- फिर चावल,
कच्चा सूत, पुष्प, चंदन, मिठाई, फल, अगरबत्ती, धूप, मधु, तिल, जौ, दही
आदि से पिंड पूजन कर लें.
- पिंड को हाथ में ले लें फिर इस मंत्र को पढ़ने के बाद
पिंड को अंगूठा और तर्जनी के मध्य से छोडे़ें.तर्पण मंत्रः
इदं पिण्डं (फिर पितर का नाम लें) तेभ्यः स्वधा. - इस तरह कम से कम तीन पीढ़ी के पितरों को पिंडदान करना
चाहिए.
- इस तरह पिंडदान करने के बाद निम्न मंत्र को तीन बार पढ़कर
पितरों की आराधना करनी चाहिए. पितर पूजन का यह मंत्र स्वयं ब्रह्माजी द्वारा
रचा गया है. पितृ आराधना एवं तर्पण मंत्र है-
देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिश्च एव च।
नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्त्युत ।।
·
इसके बाद पिंड को उठाकर जल में प्रवाहित
कर देना चाहिए.
·
श्राद्ध सदैव दोपहर के समय ही करें.
प्रातःकाल एवं सायंकाल में श्राद्ध की मनाही है.
·
श्राद्ध करते समय दाहिने से बाएं नहीं
बल्कि बाएं से दाहिने (घड़ी की सूई के घूमने की दिशा के विपरीत) परिक्रमा करनी
चाहिए.
·
श्राद्धकर्म दक्षिण दिशा की ओर मुख करके
पूरा करें. दक्षिण ही यम की दिशा है.
·
जिस दिन श्राद्ध करें उस दिन पूर्ण
ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए.
·
श्राद्ध के दिन क्रोध, चिड़चिड़ापन और कलह से
दूर रहें. पशु-पक्षियों के प्रति प्रेमभाव रखें.
·
पितरों को भोजन सामग्री देने के लिए
मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग करना उत्तम है. केले के पत्ते या लकड़ी के बर्तन का भी
प्रयोग किया जा सकता है.
यज्ञ हवन आदि में आहुति देते
समय मंत्र के अंत में स्वाहा का उच्चारण किया जाता है. स्वाहा की उत्पत्ति भगवान
ने देवताओं को आहार प्रदान करने के लिए की थी. पितरों की भूख कैसे शांत होती है? पितरों की भूख शांति के लिए ब्रह्माजी ने स्वधा की सृष्टि की थी.
पितृपक्ष के शुरू होने से
पहले मैंने आपको पितृ तर्पण का एक मंत्र बताया था जिसमें स्वधा शब्द आया. स्वधा
कौन हैं, स्वधा की उत्पत्ति कैसे हुई, श्राद्ध-तर्पण और पितृकर्म में स्वधा का क्या महत्व इसे जरूर जानना
चाहिए.
स्वधा करती हैं पितरों की
भूख शांत
क्यों पितरों का आह्वान स्वधा के साथ होता है-
सृष्टि के आरंभ में
ब्रह्माजी ने मनुष्यों के कल्याण के लिए सात पितरों की उत्पत्ति की. उनमें से चार
मूर्तिमान हो गए. शेष तीन तेज के रूप में स्थापित हो गए. सातों पितरों के लिए अब
परमपिता को आहार की व्यवस्था की करनी थी. ब्रह्माजी ने व्यवस्था दी कि मनुष्यों द्वारा
श्राद्ध और तर्पण के माध्यम से जो भेंट अर्पण किया जाएगा वही पितरो का आहार होगी.
ब्रह्माजी द्वारा अपने लिए
आहार के प्रबंध से पितर संतुष्ट होकर चले गए. उन्होंने श्राद्ध-तर्पण की भेंट की
प्रतीक्षा की पर मनुष्यों द्वारा तर्पण के उपरांत भी पितरों तक उनका अंश नहीं पहुंचा. पितर बड़े चितिंत हुए. आखिर ब्रह्माजी ने
यह व्यवस्था दी है तो फिर उनका अंश उन्हें प्राप्त क्यों नहीं हो रहा. आपस में
परामर्श के बाद सबने पुनः ब्रह्माजी से ही अपनी परेशानी बताने की निर्णय किया. वे
अपनी समस्या लेकर ब्रह्मदेव के पास ब्रह्मलोक पहुंचे.
पितरों ने ब्रह्माजी की
स्तुति के बाद अपना निवेदन रखा- हे परमपिता आपने मनुष्यों के कल्याण के लिए हमारी
रचना की. उनके द्वारा दिए जाने वाले श्राद्ध और तर्पण का अंश हमारे लिए तय किया
फिर भी मनुष्यों द्वारा भेजा हमारा अंश हमें नहीं मिल रहा है. हमारा अंश हम तक
क्यों नहीं पहुंचा रहा. हमने विचार किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हमारा अंश हम
तक पहुंचाने का कोई साधन नहीं है.
ब्रह्माजी उनकी परेशानी समझ
रहे थे.
पितरों ने कहा- देवों को जब
हवन आदि में से उनका अंश नहीं मिल रहा था तो आपने उनके लिए भगवती के अंश स्वाहा की
उत्पत्ति करके उन पर कृपा की थी. प्रभु हमारी भूख शांत करने का भी उचित उपाय करें.
पितरों की विनती पर ब्रह्मा
ने उन्हें आश्वस्त कराया कि वह इसका निदान करेंगे. यज्ञ में से देवताओं का भाग उन
तक पहुंचाने के लेने के लिए अग्नि की भस्म शक्ति स्वाहा की उत्पत्ति देवी भगवती से
हुई थी. इसलिए ब्रह्मा ने पुनः देवी का ही ध्यान किया और उनसे पितरों के संकट
समाधान की विनती की.
भगवती ब्रह्मा के शरीर से
उनकी मानसी कन्या के रूप में प्रकट हुई. सैकड़ों चंद्रमा की तरह चमकते उनके अंश
रूप में विद्या, गुण और बुद्धि विद्यमान थे. तेजस्वी देवी का
ब्रह्मा ने स्वधा नामकरण किया और पितरों को सौंप दिया.
ब्रह्मा ने स्वधा को वरदान
देते हुए कहा- जो मनुष्य मंत्रों के अंत में स्वधा जोड़कर पितरों के लिए भोजन आदि
अर्पण करेगा, वह सहर्ष स्वीकार होगा. पितरों को अपर्ण किए बिना
कोई भी दान-यज्ञ आदि पूर्ण नहीं होंगे और पितरों को उनका अंश बिना तुम्हारा आह्वान
किए पूरा न होगा.
तभी से पितरों के लिए किए
जाने वाले दान में स्वधा का उच्चारण किया जाता है. भगवती के इस रूप का स्मरण
दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा, स्वधा नमोस्तुते मंत्र के
साथ करते हैं.
हिंदू धर्म में श्राद्ध व तर्पण का महत्व
Reviewed by कृष्णप्रसाद कोइराला
on
सितंबर 29, 2018
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