स्वर्ग और नरक के बारे में शास्त्रों में बहुत वर्णन आता है. स्वर्ग जहां सुखों का पर्याय है वहीं नरक कष्टों का लोक. स्वर्ग और नरक के फल क्या सिर्फ जीवन के बाद के लोक में ही है? क्या जीवनकाल में मनुष्य स्वर्ग और नरक के चरणों से नहीं गुजरता? क्या स्वर्ग और नरक का भेद समझने के लिए मरना ही जरूरी है? या जीवित रहते भी जान सकते हैं स्वर्ग और नरक का भेद?
स्वर्ग और नरक के विषय में व्यवहारिक फर्क सिखाएगी ये कथा. स्वर्ग और नरक लोक के भाव को समझने में सहायता करके आपको आनंदित करेगी, आपका ज्ञान बढाएगी.
एक संत के बारे में प्रसिद्ध था कि वह लोगों की शंकाओं और समस्याओं का व्यावहारिक समाधान देते हैं. वह लोगों को समझाने के लिए ऐसे उदाहरण दिया करते जो बड़े व्यवहारिक होते थे. बात व्यक्ति की अंतरात्मा को छू जाती थी.
एक बार उनके पास सेना का एक वरिष्ठ अधिकारी आया. उसने विनीत भाव से उनके चरण स्पर्श किए. उसने अपने मन में लंबे समय से चल रहा एक प्रश्न रखा.
अधिकारी ने कहा- महात्माजी मैं अक्सर लोगों को स्वर्ग और नरक के बारे में बातें करते सुनता हूं किंतु अभी तक मुझे कुछ समझ नहीं आया. स्वर्ग और नरक आखिर बला क्या है. आप मुझे स्वर्ग और नरक के बारे में बताएं. इस वैचारिक उलझन से निकलने का रास्ता दिखाइए.
संत ने उसकी बात सुनी और मुस्कुराए. बजाए सीधे उसके प्रश्नों का उत्तर देने के पहले उससे इधर-उधर की कुछ बातें करने लगे. फौजी अधिकारी अनुशासित होते हैं. नपी-तुली बात पसंद करते हैं, पर महात्माजी तो इधर-उधर की बातें करने लगे.
फौजी मन ही मन खीझने लगा. महात्माजी के बारे में उसके मन में तरह-तरह के भाव आने लगे.
सोचने लगा, इसके बारे में झूठी अफवाह फैला रखी है लोगों ने. यह व्यवहारिक जवाब क्या देगा यह तो दो टूक जवाब भी नहीं दे रहा. व्यग्रता के कारण फौजी में लगातार नकारात्मक भाव आते रहे. महात्माजी उसके चेहरे के सारे भाव पढ़ रहे थे.
अब महात्माजी ने उस अधिकारी से पूछना शुरू किया.
महात्माजी ने पूछा- फौज में आपकी क्या जिम्मेदारी है? अपनी उपलब्धियां बताइए. अपनी बहादुरी के कोई प्रसंग याद हों तो सुनाइए.
यह सुनकर फौजी के मन के भाव फिर बदलने लगे. अब वह खुश होने लगा. गर्व के साथ अपनी बातें कहने लगा. अपने फौजी जीवन की उपलब्धियां एक-एक करके गिनाने लगा. उसकी बातों से फौजी होने का रोब साफ-साफ दिख रहा था.
फौजी अपनी उपलब्धियों का बखान कर ही रहा था कि अचानक संत ने उसको रोका. फिर रूखे अंदाज में बोल पड़े- देखो, धैर्य से तुम्हारी बातें सुन रहा हूं इसका मतलब यह नहीं कि मैं मूर्ख हूं. तुम कुछ भी कहते जाओगे, मैं मान जाऊंगा. डींगें हांकना बंद करो. मुझे तुम्हारी किसी भी बात पर भरोसा नहीं है.
अब तो मुझे इस बात पर भी भरोसा नहीं रहा कि तुम फौज में भी हो. कौन मानेगा तुम्हें फौज का अधिकारी! शक्ल सूरत से तुम फौजी अधिकारी नहीं गली के उचक्के लगते हो जो लोगों से लूट-पाट करता है. अपनी शेखी बघारना बंद करो और यहां से जाओ.
इतना सुनते ही वह फौजी तमतमा गया. उसने अपनी पिस्तौल निकालकर संत के सिर पर तान दी.
इस पर संत ने कहा- मैंने कहा था न कि तुम उचक्के हो. अपने साथ नकली बंदूक भी रखते हो ताकि असलियत खुलने लगे तो तुम लोगों को इससे डरा सको. मैं असली और नकली में फर्क समझ लेता हूं. ये नकली बंदूक वापस रखो और यहां से दफा हो जाओ.
पहले मुझे नकली और उचक्का कहा, अब मेरी पिस्तौल को भी नकली कह रहा है. इस मूर्ख को तो सबक सिखाना ही होगा. फौजी के क्रोध की कोई सीमा ही न रही.
उसने महात्माजी को गोली मारने का निश्चय कर लिया. गोली मारने के लिए पिस्तौल का बोल्ट खींचा.
इससे पहले कि ट्रिगर दबाकर गोली चला देता, महात्माजी शांतभाव से हंसते हुए बोल पड़े- यही भाव नरक है. क्रोध मे चूर होकर आपने अपना संतुलन खो दिया. कुछ समय पहले आप मेरे चरण छू रहे थे. आप यहां इस विश्वास से आए थे कि मैं आपकी सभी समस्याओं का व्यवहारिक निदान कर सकता हूं. किंतु चंद मिनटों में आपने अपनी सारी व्यवहारिकता भुला दी.
आप मेरी हत्या को उतारू हो गए. क्रोध और आवेश में आप यह भी भूल गए कि मेरी हत्या के बाद आपको सजा हो जाएगी. फिर तो न सरकारी ओहदा रहेगा न ही वह पिस्तौल जिससे आप गोली चलाने वाले थे.
आप अपनी उपलब्धियां गिना रहे थे. फौज में रहते आपके पास अपनी उपलब्धियां बढ़ाने का अवसर है, पर हत्या करते ही सब पलभर में स्वाहा हो जाता. आपको फौज से अपमानित करके निकाला जाता. फिर कौन सी उपलब्धि और कौन सा बखान. अपने कर्मों से इंसान स्वर्ग से नरक के बीच की छलांग इतनी तेजी से लगा लेता है.
फौजी ने शर्मिंदा होकर पिस्तौल वापस रख ली. उसकी आंखों में शर्म और पश्चाताप के भाव थे. कुछ पल शांत रहने के बाद महात्माजी ने बात आगे बढ़ाई.
संत बोले- विवेक के जागृत होने पर व्यक्ति को अपनी भूल का अहसास होने लगता है. मन शांत होने के बाद स्थिरता आती है, फिर दिव्य आनंद की अनुभूति होती है. यही अनुभूति स्वर्ग है. आत्मनियंत्रण से हमारा विवेक जाग्रत होता है. विवेक हमारे शरीर में एक ऐसा पहरेदार है जो हमें अनुचित करने से रोकता है.
यदि हम विवेक की बात समझ लेते हैं तो जीवन में शांति और सुख प्राप्त होते हैं. स्वर्ग यही है. परंतु जैसे ही हम विवेक के संकेतों की अनदेखी शुरू करते हैं, निस्संदेह कई क्षणिक आनंद तो प्राप्त होते हैं किंतु वे आनंद अस्थाई हैं. वे जल्द ही दुखों का कारण बनते हैं. यही नरक है.
तभी तो संत ने कहा, स्वर्ग और नरक के बीच की छलांग इतनी ही छोटी है. स्वर्ग से नर्क की ओर छलांग बहुत आसान है. लेकिन नर्क के फेर से निकलकर स्वर्ग के लिए वापस राह बनाना उतना ही कठिन. इसलिए हमारा कदम सोच-समझकर बढ़ना चाहिए.
निर्णय बहुत सजगता से होने चाहिए. आक्रोश आना स्वाभाविक है बस अपने अंदर एक गुण विकसित कर लीजिए. आक्रोश के बीच विवेक को जागृत करने के 30 सेंकेड की आदत. वे 30 सेकेंड ही आपके जीवन का मार्ग तय कर देते हैं.
आपने देखा होगा लोग बहुत क्रोध में होते हैं तो बीच में एक हल्का सा विराम लेते हैं. ऊं का उच्चारण करते हैं या अपने आराध्य का नाम लेते हैं. यह 30 सेकेंड आपको बड़ी शर्मिंदगी और समस्याओं से बचा देता है.
स्वर्ग और नरक के विषय में व्यवहारिक फर्क सिखाएगी ये कथा. स्वर्ग और नरक लोक के भाव को समझने में सहायता करके आपको आनंदित करेगी, आपका ज्ञान बढाएगी.
एक संत के बारे में प्रसिद्ध था कि वह लोगों की शंकाओं और समस्याओं का व्यावहारिक समाधान देते हैं. वह लोगों को समझाने के लिए ऐसे उदाहरण दिया करते जो बड़े व्यवहारिक होते थे. बात व्यक्ति की अंतरात्मा को छू जाती थी.
एक बार उनके पास सेना का एक वरिष्ठ अधिकारी आया. उसने विनीत भाव से उनके चरण स्पर्श किए. उसने अपने मन में लंबे समय से चल रहा एक प्रश्न रखा.
अधिकारी ने कहा- महात्माजी मैं अक्सर लोगों को स्वर्ग और नरक के बारे में बातें करते सुनता हूं किंतु अभी तक मुझे कुछ समझ नहीं आया. स्वर्ग और नरक आखिर बला क्या है. आप मुझे स्वर्ग और नरक के बारे में बताएं. इस वैचारिक उलझन से निकलने का रास्ता दिखाइए.
संत ने उसकी बात सुनी और मुस्कुराए. बजाए सीधे उसके प्रश्नों का उत्तर देने के पहले उससे इधर-उधर की कुछ बातें करने लगे. फौजी अधिकारी अनुशासित होते हैं. नपी-तुली बात पसंद करते हैं, पर महात्माजी तो इधर-उधर की बातें करने लगे.
फौजी मन ही मन खीझने लगा. महात्माजी के बारे में उसके मन में तरह-तरह के भाव आने लगे.
सोचने लगा, इसके बारे में झूठी अफवाह फैला रखी है लोगों ने. यह व्यवहारिक जवाब क्या देगा यह तो दो टूक जवाब भी नहीं दे रहा. व्यग्रता के कारण फौजी में लगातार नकारात्मक भाव आते रहे. महात्माजी उसके चेहरे के सारे भाव पढ़ रहे थे.
अब महात्माजी ने उस अधिकारी से पूछना शुरू किया.
महात्माजी ने पूछा- फौज में आपकी क्या जिम्मेदारी है? अपनी उपलब्धियां बताइए. अपनी बहादुरी के कोई प्रसंग याद हों तो सुनाइए.
यह सुनकर फौजी के मन के भाव फिर बदलने लगे. अब वह खुश होने लगा. गर्व के साथ अपनी बातें कहने लगा. अपने फौजी जीवन की उपलब्धियां एक-एक करके गिनाने लगा. उसकी बातों से फौजी होने का रोब साफ-साफ दिख रहा था.
फौजी अपनी उपलब्धियों का बखान कर ही रहा था कि अचानक संत ने उसको रोका. फिर रूखे अंदाज में बोल पड़े- देखो, धैर्य से तुम्हारी बातें सुन रहा हूं इसका मतलब यह नहीं कि मैं मूर्ख हूं. तुम कुछ भी कहते जाओगे, मैं मान जाऊंगा. डींगें हांकना बंद करो. मुझे तुम्हारी किसी भी बात पर भरोसा नहीं है.
अब तो मुझे इस बात पर भी भरोसा नहीं रहा कि तुम फौज में भी हो. कौन मानेगा तुम्हें फौज का अधिकारी! शक्ल सूरत से तुम फौजी अधिकारी नहीं गली के उचक्के लगते हो जो लोगों से लूट-पाट करता है. अपनी शेखी बघारना बंद करो और यहां से जाओ.
इतना सुनते ही वह फौजी तमतमा गया. उसने अपनी पिस्तौल निकालकर संत के सिर पर तान दी.
इस पर संत ने कहा- मैंने कहा था न कि तुम उचक्के हो. अपने साथ नकली बंदूक भी रखते हो ताकि असलियत खुलने लगे तो तुम लोगों को इससे डरा सको. मैं असली और नकली में फर्क समझ लेता हूं. ये नकली बंदूक वापस रखो और यहां से दफा हो जाओ.
पहले मुझे नकली और उचक्का कहा, अब मेरी पिस्तौल को भी नकली कह रहा है. इस मूर्ख को तो सबक सिखाना ही होगा. फौजी के क्रोध की कोई सीमा ही न रही.
उसने महात्माजी को गोली मारने का निश्चय कर लिया. गोली मारने के लिए पिस्तौल का बोल्ट खींचा.
इससे पहले कि ट्रिगर दबाकर गोली चला देता, महात्माजी शांतभाव से हंसते हुए बोल पड़े- यही भाव नरक है. क्रोध मे चूर होकर आपने अपना संतुलन खो दिया. कुछ समय पहले आप मेरे चरण छू रहे थे. आप यहां इस विश्वास से आए थे कि मैं आपकी सभी समस्याओं का व्यवहारिक निदान कर सकता हूं. किंतु चंद मिनटों में आपने अपनी सारी व्यवहारिकता भुला दी.
आप मेरी हत्या को उतारू हो गए. क्रोध और आवेश में आप यह भी भूल गए कि मेरी हत्या के बाद आपको सजा हो जाएगी. फिर तो न सरकारी ओहदा रहेगा न ही वह पिस्तौल जिससे आप गोली चलाने वाले थे.
आप अपनी उपलब्धियां गिना रहे थे. फौज में रहते आपके पास अपनी उपलब्धियां बढ़ाने का अवसर है, पर हत्या करते ही सब पलभर में स्वाहा हो जाता. आपको फौज से अपमानित करके निकाला जाता. फिर कौन सी उपलब्धि और कौन सा बखान. अपने कर्मों से इंसान स्वर्ग से नरक के बीच की छलांग इतनी तेजी से लगा लेता है.
फौजी ने शर्मिंदा होकर पिस्तौल वापस रख ली. उसकी आंखों में शर्म और पश्चाताप के भाव थे. कुछ पल शांत रहने के बाद महात्माजी ने बात आगे बढ़ाई.
संत बोले- विवेक के जागृत होने पर व्यक्ति को अपनी भूल का अहसास होने लगता है. मन शांत होने के बाद स्थिरता आती है, फिर दिव्य आनंद की अनुभूति होती है. यही अनुभूति स्वर्ग है. आत्मनियंत्रण से हमारा विवेक जाग्रत होता है. विवेक हमारे शरीर में एक ऐसा पहरेदार है जो हमें अनुचित करने से रोकता है.
यदि हम विवेक की बात समझ लेते हैं तो जीवन में शांति और सुख प्राप्त होते हैं. स्वर्ग यही है. परंतु जैसे ही हम विवेक के संकेतों की अनदेखी शुरू करते हैं, निस्संदेह कई क्षणिक आनंद तो प्राप्त होते हैं किंतु वे आनंद अस्थाई हैं. वे जल्द ही दुखों का कारण बनते हैं. यही नरक है.
तभी तो संत ने कहा, स्वर्ग और नरक के बीच की छलांग इतनी ही छोटी है. स्वर्ग से नर्क की ओर छलांग बहुत आसान है. लेकिन नर्क के फेर से निकलकर स्वर्ग के लिए वापस राह बनाना उतना ही कठिन. इसलिए हमारा कदम सोच-समझकर बढ़ना चाहिए.
निर्णय बहुत सजगता से होने चाहिए. आक्रोश आना स्वाभाविक है बस अपने अंदर एक गुण विकसित कर लीजिए. आक्रोश के बीच विवेक को जागृत करने के 30 सेंकेड की आदत. वे 30 सेकेंड ही आपके जीवन का मार्ग तय कर देते हैं.
आपने देखा होगा लोग बहुत क्रोध में होते हैं तो बीच में एक हल्का सा विराम लेते हैं. ऊं का उच्चारण करते हैं या अपने आराध्य का नाम लेते हैं. यह 30 सेकेंड आपको बड़ी शर्मिंदगी और समस्याओं से बचा देता है.
स्वर्ग व नर्क में भिन्नता
Reviewed by कृष्णप्रसाद कोइराला
on
सितंबर 29, 2018
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