जन्म के पहले जिस प्रकार हम थे, उसी प्रकार मृत्यु भी कोई ऐसी घटना नहीं है, जिससे जीवन का नाश सिद्ध होता हो। नाश शब्द भी जन्म की तरह ‘‘नश अदर्शने’’ धातु से बना है; जिसका अर्थ होता है, जो अभी तक दिखायी दे रहा था, अब वह अव्यक्त हो गया। वह अपनी सूक्ष्म अवस्था में चला गया। शरीर स्थूल था-उसमें प्रविष्ट होने के कारण संरचना दिखायी दे रही थी, चेतना व्यक्त थी-पर शरीर के बाद वह नष्ट हो गई हो ऐसा नहीं है। अब इस तथ्य को विज्ञान भी मानने लगा है, अलबत्ता विज्ञान प्रकट का संबंध अभी तक मनोमय विज्ञान से जोड़ नहीं पाया, इसलिए वह परलोक, पुनर्जन्म, लोकोत्तर जीवन, भूत-प्रेत, देव-योनि, यक्ष-किन्नर, पिशाच, बैताल आदि अतींद्रिय अवस्थाओं की विश्लेषण नहीं कर पाता। पर मृत्यु के बाद जीवन नष्ट नहीं हो जाता है, यह एक अकाट्य तथ्य है और इसी आधारभूत सिद्धान्त के कारण भारतीय जीवन पद्धति का निर्धारण इस प्रकार किया गया है कि वह मृत्यु के बाद भी अपने जीवन के अनंत प्रवाह को अपने यथार्थ लक्ष्य स्वर्ग, मुक्ति और ईश्वर दर्शन की ओर मोड़े रह सके।
विक्षुब्ध जीवात्मा की दयनीय स्थिति—प्रेत-दशा
जीव चेतना का शरीर मरण के साथ ही अंत नहीं हो जाता। वरन् उसका अस्तित्व पीछे भी बना रहता है। इसके प्रत्यक्ष प्रमाण भी बहुधा मिलते रहते हैं। पिछले दिनों यह तथ्य परंपरागत मान्यताओं एवं कथा-पुराणों के प्रतिपादनों पर ही निर्भर था कि मरणोत्तर काल में भी जीवात्मा का अस्तित्व बना रहता है। उसे परलोक में रहना पड़ता है। स्वर्ग-नरक भुगतना पड़ता है एवं पुनर्जन्म के चक्र में भ्रमण करना पड़ता है।
इस संदर्भ में अब तक के अन्वेषणों ने कई अनोखे तथ्य प्रतिपादित किए हैं। मरने के उपरांत अनेकों को शांति मिलती है और वे प्रत्यक्ष जीवन में अहर्निश श्रम करने की थकान को दूर करने के लिए परलोक की गुफा में विश्राम लेने लगते हैं। इसी निद्राकाल में स्वर्ग-नरक जैसे स्वप्न दिखाई पड़ते रहते होंगे। थकान उतरने पर जीव पुनः संपन्न बनता है और अपने संगृहीत संस्कारों के खिंचाव से रुचिकर परिस्थितियों के इर्द-गिर्द मँडराने लगता है। वहीं किसी के घर उसका जन्म हो जाता है।
कभी-कभी कोई मनुष्य प्रेत योनि प्राप्त करता है। यह न जीवित स्थिति कही जा सकती है और न पूर्ण मृतक ही। जीवित इसलिए नहीं कि स्थूल शरीर न होने के कारण वे वैसा कर्म तथा उपभोग नहीं कर सकते, जो इंद्रियों की सहायता से ही संभव हो सकते हैं। मृतक उन्हें इसलिए नहीं कह सकते कि वासनाओं और आवेशों से अत्यधिक ग्रसित होने के कारण उनका सूक्ष्म शरीर काम करने लगता है, अस्तु वे अपने अस्तित्व का परिचय यत्र-तत्र देते-फिरते हैं। इस विचित्र स्थिति में पड़े होने के कारण वे किसी का लाभ एवं सहयोग तो कदाचित कर ही सकते हैं; हाँ, डराने या हानि पहुँचाने का कार्य वे सरलतापूर्वक संपन्न कर सकते हैं। इसी कारण आमतौर से लोग प्रेतों से डरते हैं और उनका अस्तित्व अपने समीप अनुभव करते ही, उन्हें भगाने का प्रयत्न करते हैं। प्रेतों के प्रति किसी का आकर्षण नहीं होता वरन् उससे भयभीत रहते बचते ही रहते हैं। वैज्ञानिक शोध की दृष्टि से, वस्तुस्थिति जानने एवं कौतूहल निवारण की दृष्टि से कोई उस क्षेत्र में प्रवेश करके, तथ्यों की जानकारी के लिए प्रयत्न करे तो यह दूसरी बात है।
प्रेतात्माओं द्वारा अपने अस्तित्व का परिचय दिये जाने तथा अमुक व्यक्तियों को अपना माध्यम बनाकर त्रास देने की घटनाओं का वर्णन करना, इन पंक्तियों में अभीष्ट नहीं। जनश्रुति से लेकर सरकारी रिकार्ड में दर्ज और परामनोविज्ञान के अन्वेषकों द्वारा मान्यता प्राप्त ऐसी असंख्यों घटनाएँ सामने आती रहती हैं, जिनसे प्रेतात्माओं के अस्तित्व की पुष्टि होती है। यहाँ तो चर्चा यह है की जानी है कि प्रेत योनि में सभी को जाना पड़ता है अथवा किसी विशेष स्थिति के व्यक्ति ही उनमें प्रवेश करते हैं। उत्तर स्पष्ट है। उद्विग्न, विक्षुब्ध, आतुर, अशांत, क्रुद्ध, कामनाग्रस्त, अतृप्त लोगों को ही प्रायः प्रेत बनना पड़ता है। शांतचित्त, सौम्य एवं सज्जन प्रकृति के लोग सीधी-सादी जन्म-मरण की प्रक्रिया पूरी करते रहते हैं।
प्रेत-योनि की प्राप्ति के दो मुख्य कारण होते हैं—पहला-प्रबल आकांक्षाओं की अतृप्ति। दूसरा—तृष्णा-वासनाओं की तीव्रता। प्रबल आकांक्षा की व्यक्ति-चित्त में प्रचंड प्रक्रिया होती है। दैनिक जीवन में भी यह देखा जाता है कि जब कोई नवीन योजना दिमाग में होती है, तो उनकी सुनिश्चित रूपरेखा बनने तक मन-मस्तिष्क चैन से नहीं बैठ पाता, न ही नींद आती है। ऐसी आकांक्षा खंडित हो जाने पर कई-कई रातों तक लोगों की नींद उड़ जाया करती है। यही बात तृष्णाओं के बारे में हैं। तृष्णा से व्याकुल लोग न शांत रह पाते, न आराम कर पाते, न ही सो पाते हैं, जब तक तीव्र तृष्णा की कुछ पूर्ति नहीं होती। वे उद्विग्न ही बने रहते हैं। प्रेत योनि भी ऐसी ही उद्विग्नता और अशांति से भरी जीवन-दशा का नाम है, जो मरणोत्तर अवधि में होती है।
हम भारतीयों की यह जो मान्यता है कि धन, पुत्र, वासना आदि पर आसक्ति रहते यदि किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो उसे कई बार मृत्यु के बाद बहुत समय कर किसी भूत-प्रेत की योनि में रहना पड़ता है। इसीलिये भारतीय संस्कृति में सदैव ही अनासक्त जीवन जीने की प्रेरणा दी गई है। चार आश्रम—(1) ब्रह्मचर्य-विद्याध्ययन, (2) गृहस्थ, (3) वानप्रस्थ, और (4) संन्यास में अंतिम दो की अधिकांश शिक्षाएँ और कर्तव्य ऐसे हैं, जिनमें प्रत्येक व्यक्ति को धीरे-धीरे परिवार धन-संपत्ति का मोह हटाकर, अपना मन परमार्थ-साधना में लगाना पड़ता था। संन्यास-दीक्षा के बाद तो वह सब कुछ त्यागकर अपने आपको उस तरह अनुभव करता था जैसे—मकड़ी अपने बनाए जाले को स्वयं खाकर संतोष अनुभव करती है। तब जिसके पीछे बेटे होते थे, वह उनकी आवश्यकता की संपत्ति उन्हें देकर शेष लोक-कल्याण में लगाकर घर छोड़ देते थे और आत्म-कल्याण की साधना में जुट जाते थे।
मोहांध व्यक्तियों के प्रेत-योनि में जाने का कोई वैज्ञानिक आधर तो अभी समझ में नहीं आता, किंतु बौद्धिक और प्रामाणिक आधार अवश्य हैं। हम में से अनेकों को भूत का सामना करना पड़ जाता है; पर यदि सामान्य लोगों की बात को भ्रम या अंधविश्वास मानें जैसा कि अनेक लोग किसी स्वार्थवश या किसी को धोखा देने के लिये भी भूत-प्रेत की बात कहकर डरा देते हैं तो भी संसार में कई ऐसी घटनाएँ घटी हैं, जिनमें इस विश्वास को विचारशील लोगों का भी समर्थन मिला है।
भूत क्या करते हैं ............. BHUT PRET
Reviewed by कृष्णप्रसाद कोइराला
on
नवंबर 27, 2018
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