वेद की सुस्पष्ट घोषणा है कि विराट् के मुख से अग्नि उत्पन्न हुई। ब्राह्मण विराट का मुख स्थानीय है। अग्नि के माध्यम द्वारा स्वर्गस्थ देवता। देवता सदा हव्यों को खाते हैं और पितृगण कव्यों को खाते हैं। जिसके लिए ब्राह्मण से अधिक उत्तम और कौन हो सकता है?
इस प्रकार अग्नि और ब्राह्मण की तात्विक समानता शास्त्र सिद्ध है, इसीलिए सविता देवता ब्राह्मगायत्री ब्राह्मणों का मूल मंत्र है। सो भौतिक अग्नि में विधिवत होमना ब्राह्मणों की जठराग्नि में होमना दोनों समान क्रियाएँ हैं।
जैसे भक्षित अन्न का स्थूल भाग मलरूप से बाहर निकल जाता है और उसका सूक्ष्मभाग रस, रक्त, मांस मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य रूप में परिणत होकर शारीरिक पोषण का हेतु बनता है तथा उसका ही सूक्ष्मतर भाग नस्य, आघ्रेय आदि रूपों में परिणत होकर इंद्रिय और मन को परम्परा से अन्ततोगत्वा भोक्ता के चेतन जीव का 'आस्वाद्य' बन जाता है।
इसी प्रकार उक्त भक्षित अन्न का सूक्ष्मतम भाग यजमान के श्रद्धा, सत्य संकल्प और ब्रह्मण्यता आदि सद्गुणों के प्रभाव से तथा तत्तद् वैदिक क्रियाकलाप की सामर्थ्य से देव पितरों का परिपोषक सिद्ध होता है।
यह बात तो केवल श्राद्ध भोक्ता ही अनुभव कर सकते हैं कि श्राद्ध में खाए हुए नाना प्रकार के भोजन व्यंजन भी भोक्ता के परिपोषक नहीं होते। यदि ऐसा हो तो कनागत श्राद्धों में लगातार सोलह दिन तक प्रत्यक्षतः माल उड़ाने वाले ब्राह्मण बलिष्ठ और बलवान बन जाते, परन्तु होता इसके विपरीत यह है कि श्राद्धभुक् अपने को केवल बोझा ढोने वाला से अनुभव करता है, खाया हुआ भोजन निःसार जंचता है। इसका तात्पर्य यही हो सकता है कि भक्षित श्राद्धान्न का सार भाग पितरों को प्राप्त होता है। भोक्ता तो केवल माध्यम मात्र है।
पितृ सूक्त : श्राद्ध पक्ष विशेष
पितृदोष के निवारण के लिए श्राद्धकाल में पितृ सूक्त का पाठ करना चाहिए। संध्या समय में तेल का दीपक जलाकर यह पाठ करें तो पितृदोष की शांति होती है। पाठ के पश्चात् पीपल में जल अवश्य चढ़ाएं।
उदिताम् अवर उत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः।
असुम् यऽ ईयुर-वृका ॠतज्ञास्ते नो ऽवन्तु पितरो हवेषु॥1॥
अंगिरसो नः पितरो नवग्वा अथर्वनो भृगवः सोम्यासः।
तेषां वयम् सुमतो यज्ञियानाम् अपि भद्रे सौमनसे स्याम्॥2॥
ये नः पूर्वे पितरः सोम्यासो ऽनूहिरे सोमपीथं वसिष्ठाः।
तेभिर यमः सरराणो हवीष्य उशन्न उशद्भिः प्रतिकामम् अत्तु॥3॥
त्वं सोम प्र चिकितो मनीषा त्वं रजिष्ठम् अनु नेषि पंथाम्।
तव प्रणीती पितरो न देवेषु रत्नम् अभजन्त धीराः॥4॥
त्वया हि नः पितरः सोम पूर्वे कर्माणि चक्रुः पवमान धीराः।
वन्वन् अवातः परिधीन् ऽरपोर्णु वीरेभिः अश्वैः मघवा भवा नः॥5॥
त्वं सोम पितृभिः संविदानो ऽनु द्यावा-पृथिवीऽ आ ततन्थ।
तस्मै तऽ इन्दो हविषा विधेम वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥6॥
बर्हिषदः पितरः ऊत्य-र्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्।
तऽ आगत अवसा शन्तमे नाथा नः शंयोर ऽरपो दधात॥7॥
आहं पितृन्त् सुविदत्रान् ऽअवित्सि नपातं च विक्रमणं च विष्णोः।
बर्हिषदो ये स्वधया सुतस्य भजन्त पित्वः तऽ इहागमिष्ठाः॥8॥
उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु।
तऽ आ गमन्तु तऽ इह श्रुवन्तु अधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥9॥
आ यन्तु नः पितरः सोम्यासो ऽग्निष्वात्ताः पथिभि-र्देवयानैः।
अस्मिन् यज्ञे स्वधया मदन्तो ऽधि ब्रुवन्तु ते ऽवन्तु-अस्मान्॥10॥
अग्निष्वात्ताः पितर एह गच्छत सदःसदः सदत सु-प्रणीतयः।
अत्ता हवींषि प्रयतानि बर्हिष्य-था रयिम् सर्व-वीरं दधातन॥11॥
येऽ अग्निष्वात्ता येऽ अनग्निष्वात्ता मध्ये दिवः स्वधया मादयन्ते।
तेभ्यः स्वराड-सुनीतिम् एताम् यथा-वशं तन्वं कल्पयाति॥12॥
अग्निष्वात्तान् ॠतुमतो हवामहे नाराशं-से सोमपीथं यऽ आशुः।
ते नो विप्रासः सुहवा भवन्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्॥13॥
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्य इमम् यज्ञम् अभि गृणीत विश्वे।
मा हिंसिष्ट पितरः केन चिन्नो यद्व आगः पुरूषता कराम॥14॥
आसीनासोऽ अरूणीनाम् उपस्थे रयिम् धत्त दाशुषे मर्त्याय।
पुत्रेभ्यः पितरः तस्य वस्वः प्रयच्छत तऽ इह ऊर्जम् दधात॥15॥
॥ ओम शांति: शांति:शांति:॥
गरुड पुराण में रुचि के द्वारा की गई पितृस्तोत्र की पाठ
रुचिरुवाच
अर्चितानाममूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम् ।
नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम् ॥ १ ॥
इद्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा ।
सप्तर्षीणां तथान्येषां तान्नमस्यामि कामदान् ॥ २ ॥
मन्वादीनां च नेतारः सूर्याचन्द्रमसोस्तथा ।
तान्नमस्याम्यहं सर्वान् पितृनप्युदधावपि ॥ ३ ॥
नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा ।
द्यावापृथिव्यो श्च तथा नमस्यामि कृताञ्जलिः ॥ ४ ॥
प्रजापतेः कश्यपाय सोमाय वरुणाय च ।
योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृताञ्जलिः ॥ ५ ॥
नमो गणेभ्यः सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु ।
स्वायम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे ॥ ६ ॥
सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा ।
नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम् ॥ ७ ॥
अग्निरुपांस्तथैवान्यान्नमस्यामि पितृनहम् ।
अग्निसोममयं विश्वं यत एतदशेषतः ॥ ८ ॥
ये च तेजांसि ये चैते सोमसूर्याग्निमूर्तयः ।
जगत्स्वरुपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरुपिणः ॥ ९ ॥
तेभ्योखिलेभ्यो योगिभ्यः पितृभ्यो यतमानसः ।
नमो नमो नमस्तेस्तु प्रसीदन्तु स्वधाभुजः ॥ १० ॥
॥ इति श्री गरुड पुराणे रुचिकृतं पित्रृस्तोत्रं संपूर्णम् ॥
ब्राह्मण भोजन और पितृ सूक्त PITRI SUKTA
Reviewed by कृष्णप्रसाद कोइराला
on
नवंबर 27, 2018
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