छठ

नेपाल और बिहारका मिथिला प्रदेश (जनकपुर) तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में महापर्व के नाम से प्रसिद्ध 'छठ पर्व' श्रद्धा, विश्वास एवं आस्था के साथ मनाया जाता है। श्रद्धालुओं का मानना है कि छठ से मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। वैसे तो कहावत है कि लोग उगते सूर्य की पूजा करते हैं, किन्तु इस पर्व में अस्त एवं उदय होते हुए दोनों रूपों में भगवान भास्कर की पूजा-अर्चना की जाती है। छठ का महापर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से शुरु हो जाता है। इस पर्व की एक और विशेषता जो क़ाबिले तारीफ़ है, वह है साफ-सफाई पर विशेष ध्यान दिया जाना। कई जगह तो पूरा-का-पूरा शहर ही विशेष अभियान द्वारा साफ-सुथरा कर दिया जाता है। अन्यथा तालाब, पोखर या नदी के उन स्थलों की तो पूरी सफाई की ही जाती है जहां पर्व मनाने श्रद्धालु एकत्रित होते हैं।

छठ पूजा के इतिहास की ओर दृष्टि डालें तो इसका प्रारंभ महाभारत काल में कुंती द्वारा सूर्य की आराधना व पुत्र कर्ण के जन्म के समय से माना जाता है। मान्यता है कि छठ देवी सूर्य देव की बहन हैं और उन्हीं को प्रसन्न करने के लिए जीवन के महत्वपूर्ण अवयवों में सूर्य व जल की महत्ता को मानते हुए, इन्हें साक्षी मान कर भगवान सूर्य की आराधना तथा उनका धन्यवाद करते हुए मां गंगा-यमुना या किसी भी पवित्र नदी या पोखर ( तालाब ) के किनारे यह पूजा की जाती है। प्राचीन काल में इसे बिहार और उत्तर प्रदेश में ही मनाया जाता था। लेकिन आज इस प्रान्त के लोग विश्व में जहाँ भी रहते हैं वहाँ इस पर्व को उसी श्रद्धा और भक्ति से मनाते हैं।

छठ का पर्व चार दिनों तक मनाया जाता है। चतुर्थी को छठ पूजा करने वाले छठव्रती, नहाए-खाय करते हैं। फिर पंचमी को खरना, जिसमें शाम के समय छठव्रती इष्टदेव की पूजा कर भोग आदि लगाते हैं। षष्ठी को डूबते हुए सूर्य को तालाब, पोखर या नदी में खड़े होकर अर्घ्य देकर विशेष प्रकार के प्रसाद ठेकुआ, खजुर, फल, आदि जिसमें गन्ने, नारियल आदि का विशेष महत्व है, चढ़ाया जाता है। सप्तमी को उगते सूर्य को अर्घ्य, नैवेद्य से पूजा की जाती है जिसे स्थानीय भाषा में हाथ उठाना कहते हैं। हाथों में नैवेद्य, नयनो में प्रतीक्षा, "उगा हो सुरुज देव अरघ के'र बेर...." और मन में अनुनय "ले हो न अरघ हमार हे छट्ठी मैय्या...!" इस व्रत का समापन सप्तमी को होता है। चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व के प्रति श्रद्धालुओं में श्रद्धा के साथ उमंग व्याप्त रहता है।

पर्व के पहले दिन पूजा में चढ़ावे के लिए सामान तैयार किया जाता है जिसमें सभी प्रकार के मौसमी फल, केले की पूरी गौर (गवद), इस पर्व पर खासतौर पर बनाया जाने वाला पकवान ठेकुआ ( बिहार में इसे खजूर कहते हैं। यह बाजरे के आटे और गुड़ व तिल से बने हुए पुए जैसा होता है), नारियल, मूली, सुथनी, अखरोट, बादाम, नारियल, इस पर चढ़ाने के लिए लाल/ पीले रंग का कपड़ा, एक बड़ा घड़ा जिस पर बारह दीपक लगे हो गन्ने के बारह पेड़ आदि। पहले दिन महिलाएँ अपने बाल धो कर चावल, लौकी और चने की दाल का भोजन करती हैं और देवकरी में पूजा का सारा सामान रख कर दूसरे दिन आने वाले व्रत की तैयारी करती हैं।

छठ पर्व पर दूसरे दिन पूरे दिन व्रत ( उपवास) रखा जाता है और शाम को गन्ने के रस की बखीर बनाकर देवकरी में पांच जगह कोशा ( मिट्टी के बर्तन) में बखीर रखकर उसी से हवन किया जाता है। बाद में प्रसाद के रूप में बखीर का ही भोजन किया जाता है व सगे संबंधियों में इसे बाँटा जाता है।

तीसरे यानी छठ के दिन 24 घंटे का निर्जल व्रत रखा जाता है, सारे दिन पूजा की तैयारी की जाती है और पूजा के लिए एक बांस की बनी हुई बड़ी टोकरी, जिसे दौरी कहते हैं,  में पूजा का सभी सामान डाल कर देवकरी में रख दिया जाता है। देवकरी में गन्ने के पेड़ से एक छत्र बनाकर और उसके नीचे मिट्टी का एक बड़ा बर्तन, दीपक, तथा मिट्टी के हाथी बना कर रखे जाते हैं और उसमें पूजा का सामान भर दिया जाता है। वहाँ पूजा अर्चना करने के बाद शाम को एक सूप में नारियल कपड़े में लिपटा हुआ नारियल,  पांच प्रकार के फल, पूजा का अन्य सामान ले कर दौरी में रख कर घर का पुरूष इसे अपने हाथों से उठा कर नदी, समुद्र या पोखर पर ले जाता है। यह अपवित्र न हो जाए इसलिए इसे सिर के उपर की तरफ रखते हैं। पुरूष, महिलाएँ, बच्चों की टोली एक सैलाब की तरह दिन ढलने से पहले नदी के किनारे सोहर गाते हुए जाते हैं :-
काचि ही बांस कै बहिंगी लचकत जाय
भरिहवा जै होउं कवनरम, भार घाटे पहुँचाय
बाटै जै पूछेले बटोहिया ई भार केकरै घरै जाय
आँख तोरे फूटै रे बटोहिया जंगरा लागै तोरे घूम
छठ मईया बड़ी पुण्यात्मा ई भार छठी घाटे जाय

नदी किनारे जा कर नदी से मिट्टी निकाल कर छठ माता का चौरा बनाते हैं वहीं पर पूजा का सारा सामान रख कर नारियल चढ़ाते हैं और दीप जलाते हैं। उसके बाद टखने भर पानी में जा कर खड़े होते हैं और सूर्य देव की पूजा के लिए सूप में सारा सामान ले कर पानी से अर्घ्य देते हैं और पाँच बार परिक्रमा करते हैं। सूर्यास्त होने के बाद सारा सामान ले कर सोहर गाते हुए घर आ जाते हैं और देवकरी में रख देते हैं। रात को पूजा करते हैं। कृष्ण पक्ष की रात जब कुछ भी दिखाई नहीं देता श्रद्धालु अलस्सुबह सूर्योदय से दो घंटे पहले सारा नया पूजा का सामान ले कर नदी किनारे जाते हैं। पूजा का सामान फिर उसी प्रकार नदी से मिट्टी निकाल कर चौक बना कर उस पर रखा जाता है और पूजन शुरू होता है।

सूर्य देव की प्रतीक्षा में महिलाएँ हाथ में सामान से भरा सूप ले कर सूर्य देव की आराधना व पूजा नदी में खड़े हो कर करती हैं। जैसे ही सूर्य की पहली किरण दिखाई देती है सब लोगों के चेहरे पर एक खुशी दिखाई देती है और महिलाएँ अर्घ्य देना शुरू कर देती हैं। शाम को पानी से अर्घ देते हैं लेकिन सुबह दूध से अर्घ्य दिया जाता है। इस समय सभी नदी में नहाते हैं तथा गीत गाते हुए पूजा का सामान ले कर घर आ जाते हैं। घर पहुँच कर देवकरी में पूजा का सामान रख दिया जाता है और महिलाएँ प्रसाद ले कर अपना व्रत खोलती हैं तथा प्रसाद परिवार व सभी परिजनों में बांटा जाता है।

छठ पूजा में कोशी भरने की मान्यता है अगर कोई अपने किसी अभीष्ट के लिए छठ मां से मनौती करता है तो वह पूरी करने के लिए कोशी भरी जाती है इसके लिए छठ पूजन के साथ -साथ गन्ने के बारह पेड़ से एक समूह बना कर उसके नीचे एक मिट्टी का बड़ा घड़ा जिस पर छ: दिए होते हैं देवकरी में रखे जाते हैं और बाद में इसी प्रक्रिया से नदी किनारे पूजा की जाती है नदी किनारे गन्ने का एक समूह बना कर छत्र बनाया जाता है उसके नीचे पूजा का सारा सामान रखा जाता है। कोशी की इस अवसर पर काफी मान्यता है उसके बारे में एक गीत गाया जाता है जिसमें बताया गया है कि कि छठ मां को कोशी कितनी प्यारी है।

रात छठिया मईया गवनै अईली
आज छठिया मईया कहवा बिलम्बली
बिलम्बली - बिलम्बली कवन राम के अंगना
जोड़ा कोशियवा भरत रहे जहवां जोड़ा नारियल धईल रहे जहंवा
उंखिया के खम्बवा गड़ल रहे तहवां

छठ पर्व के अवसर पर मंगल गीत गाने का प्रचलन है। इन लोकगीतों की मिठास और संवेदना से इस पर्व की छटा और निखर जाती है।

एक छठगीत

"केलबा के पात पर उगेलन सुरुजदेव झांके झुके ...

हे करेलू छठ बरतिया से झांके झुके... !

हम तोह से पूछीं बरतिया हे बरतिया से किनका लागी... ?

हम तोह से पूछीं बरतिया हे बरतिया से किनका लागी... ?

हे करेलू छठ बरतिया से किनका लागी .... ?

हमरो जे स्वामी तोहरे ऐसन स्वामी से हुनके लागी...

हे करेलू छठ बरतिया से हुनके लागी.... !!"

व्रती इस गीत में आगे बताती हैं कि वो छठ का महाव्रत अपने पति, पुत्र, घर एवं परिवार के लिए करती हैइस प्रकार यह मान्यता पुष्ट हो जाती है कि छठ महाव्रत के प्रसाद से धन, वैभव, संतान मान, यश और मोक्ष की प्राप्ति होती है। महाभारत में वर्णित कथा के अनुसार, जुए में सभ कुछ गंवा कर पांडव जब बनवास में थे, तभी दुर्योधन प्रेरित महर्षि दुर्वाषा पहुँच गए, पांडवों के पर्ण कुटीर। 'अतिथिदेवो भवः !' परन्तु वनवासी याचक पांडव आतिथ्य धर्म का निर्वाह करें तो कैसे घर में अन्न का केवल के दाना और अठासी ब्रह्मन। धर्मसंकट। द्वार पर आये ब्रह्मन और असहाय पतियों को देख द्रौपदी ने भगवन कृष्ण को याद किया और भक्तवत्सल गोपाल के अनुग्रह से ब्रह्मणों का परितोष रखने में सफल रही। द्रौपदी की सेवा-निष्ठा से प्रसन्न महर्षि दुर्वाषा ने आशीष के साथ 'कार्तिक शुक्ल षष्ठी' को भगवान् भाष्कर का व्रत करने की सलाह दिया। द्रौपदी ने वन में ही उक्त तिथि को सूर्योपासना किया और छट्ठी मैय्या के प्रताप से एक वर्ष सफल अज्ञातवासोपरांत पांडवों को महाभारत युद्ध में विजय और खोया राज-पाट ऐश्वर्या व यश प्राप्त हुआ। तो ऐसी है भगवान् भुवन भाष्कर की महिमा और छठ महापर्व का महातम्य !!! बोलो छट्ठी मैय्या की जय !!!
इसे छठ से दो दिन पहले चौथ के दिन शुरू करते हैं जिसमें दो दिन तक व्रत रखा जाता है। इस पर्व की विशेषता है कि इसे घर का कोई भी सदस्य रख सकता है तथा इसे किसी मन्दिर या धार्मिक स्थान में न मना कर अपने घर में देवकरी ( पूजा-स्थल) व प्राकृतिक जल राशि के समक्ष मनाया जाता है। तीन दिन तक चलने वाले इस पर्व के लिए महिलाएँ कई दिनों से तैयारी करती हैं इस अवसर पर घर के सभी सदस्य स्वच्छता का बहुत ध्यान रखते हैं जहाँ पूजा स्थल होता है वहाँ नहा धो कर ही जाते हैं यही नही तीन दिन तक घर के सभी सदस्य देवकरी के सामने जमीन पर ही सोते हैं।
छठ छठ Reviewed by कृष्णप्रसाद कोइराला on जून 30, 2019 Rating: 5

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